लोहिया बनाम नेहरू में फसे रामधारी सिंह दिनकर

महाकवि रामधारी सिंह दिनकर काँग्रेस सदस्य के रूप में 1952 से 1964 तक राज्यसभा के सांसद रहे । प्रखर समाजवादी राम मनोहर लोहिया ने 1963 में लोकसभा उपचुनाव जीत कर प्रथम बार संसद में प्रवेश किया । दोनों विभूतियों में पहले से सामान्य परिचय था जिसने धीरे-धीरे मित्रता और परस्पर सम्मान का स्वरूप धारण कर लिया । दिनकर और लोहिया अक्सर संसद के सेंट्रल हाल में मिला करते, जहां खुल कर संवाद होता । लोहिया, जिनकी अभिव्यक्ति अनुभव के साथ पैनी और अधीर हो गयी थी, चिढ़ाने के उद्देश्य से दिनकर से पूछते- “यह कैसी बात है कि कविता में तो तुम क्रांतिकारी हो, मगर संसद में कॉंग्रेस के सदस्य?” इसमें कौतूहल से अधिक उलाहने और तिरस्कार का भाव था ।

यह सीधे-सीधे दिनकर के वैचारिक द्वंद्व पर आक्षेप था , जिसके की कई मायने निकले जा सकते थे । पर रामधारी सिंह भी महाकवि ऐसे ही न थे । अपने द्वारा दिये गए विभिन्न स्पष्टीकरणों का निचोड़ उन्होने ‘दिनचर्या’ नामक अपनी एक कविता की कुछ पंक्तियों के माध्यम से प्रस्तुत किया है –

“तब भी मां की कृपा, मित्र अब भी अनेक छाये हैं, 

बड़ी बात तो यह कि ‘लोहिया’ संसद में आये हैं। 

मुझे पूछते हैं, ”दिनकर! कविता में जो लिखते हो, 

वह है सत्य या कि वह जो तुम संसद में दिखते हो?” 

मैं कहता हूँ, ”मित्र, सत्य का मैं भी अन्वेषी हूँ, 

सोशलिस्ट ही हूँ, लेकिन कुछ अधिक जरा देशी हूँ। 

बिल्कुल गलत कम्यून, सही स्वाधीन व्यक्ति का घर है, 

उपयोगी विज्ञान, मगर मालिक सब का ईश्वर है’’ ।

एक आस्तिक, राष्ट्रवादी, मानवतावादी कवि ने मात्र तीन पंक्तियों में अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद और भारतीय समाजवाद की कितनी सुंदर समालोचना कर दिखाई । स्वयं को धरती से जुड़ा हुआ तृणमूल बताकर उन्होने भारतीय समाजवादियों की वैचारिक परतंत्रता का मखौल तो उड़ाया ही, कम्यून इत्यादि जैसी संकल्पनाओं को सर्वथा अनुचित भी ठहराया । निजी संपत्ति, अपनी भूमि, अपना परिश्रम, उसका फल, लाभ और हानि- सामाजिक संरचना में इनकी महत्ता से दिनकर भली प्रकार परिचित थे । विज्ञान की उपयोगिता को स्वीकारते हुए भी दिनकर वामपंथियों की तरह नास्तिक नहीं हो सकते थे । जिसका ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता में अटल विश्वास हो, वह भला कैसे परम पिता परमेश्वर के अस्तित्व को नकार सकता है । 1950 में सामंतवादी शक्तियों के खिलाफ ‘सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है’ की रचना करने वाले दिनकर ने ही रश्मीरथी, कुरुक्षेत्र और कृष्ण की चेतावनी की रचना भी की थी । वह प्रखर राष्ट्रवादी थे और कैसी भी अंतर्राष्ट्रीय एकता की खातिर, चाहे वह किसानों की हो अथवा श्रमिकों की, या फिर गरीब और उन्नतिशील देशों की, भारत के हितों के साथ सम्झौता नहीं कर सकते थे । चीन और रूस के कहने पर चल सकने वाले कंठ और कलम दिनकर के पास थे ही नहीं । हमारे नेताओं और युवाओं को भारत की समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता थी, समस्त संसार का बोझ अपने कंधों पर डालने की नहीं ।

अपने ही शब्दों में थे तो रामधारी सिंह भी एक समाजवादी, पर उनका समाजवाद यथार्थ से प्रेरित था, डोगमा से नहीं । उन्होने किसान, गरीब, शोषित, कुचलों के लिए लिखा, लोकतन्त्र का बिगुल बजाया, और बदलाव एवं प्रगति की बात की – परंतु भारतीय तरीखों से, और भारतीय गति के अनुसार । उस युग की काँग्रेस पार्टी की भी यही सोच थी । स्वयं नेहरू फेबियन समाजवाद को मानने वालों में थे । “हमें अपनी समृद्धि बांटनी है, अपनी गरीबी नहीं” ।

दिनकर का नेहरू-प्रेम एक पेचीदा प्रश्न है । वे स्वयं को ‘नेहरू का भक्त’ कहने तक में गुरेज नहीं करते थे और नेहरू को ‘जनता का देवता’ कहा करते थे । नेहरू भी उनका सम्मान करते थे, इसलिए उन्हें दो बार राज्यसभा भेजा, और 1953 में मंत्री बनाने पर भी विचार किया । (उन्हें मंत्रीपद की विधिवत पेशकश की गयी थी, अथवा नाम जोड़ा-काटा जाता रहा, यह स्पष्ट नहीं है)

दिनकर ने नेहरू से आग्रह कर अपने कालजयी ग्रंथ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की प्रस्तावना भी लिखवाई ।  लेकिन जब कभी विरोध की नौबत आई तो वह भी खुलकर किया । स्वतन्त्रता से पूर्व और बाद के सांप्रदायिक दंगों में बिहारी हिंदुओं पर हुए पुलिसिया अत्याचारों के खिलाफ दिनकर ने आवाज़ बुलंद की । नेहरू और उनके चमचों द्वारा यदा-कदा हिन्दी की आलोचना किए जाने पर भी दिनकर बहुत कुपित होते और एक मर्तबा संसद में कड़ा वक्तव्य जारी कर दिया था । चीन से युद्ध में मिली पराजय ने दिनकर को झखझोर कर रख दिया । ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ के माध्यम से उन्होने सरकार की नीतियों, सैन्य शक्ति के प्रति उदासीनता और एकतरफा मित्रता और शांति-राग अलापने को लेकर नेहरू की कड़ी आलोचना की और इस हार के लिए अकेले उन्हें उत्तरदाई ठहराया । टूटे-हुए नेहरू भी ज्यादा न चल सके और 1964 में परलोक सिधार गए । दिनकर ने ‘लोकदेव नेहरू’ नाम से एक पुस्तक लिखी और चीन द्वारा भाईचारे के नाम पर किए गए विश्वासघात के कारण नेहरू को लगे झटके के बारे में विस्तार से लिखा ।

चीन युद्ध के बाद ही, 1963 में, लोहिया संसद पहुंचे थे  । युद्ध की पूर्वबेला पर दिनकर ने अपने एक व्यंग्य-काव्य में लिखा था – “तब कहो लोहिया महान है, एक ही तो वीर यहाँ सीना रहा तान है” । यही पंक्तियाँ दोनों की मित्रता का आधार बनीं । तब तक लोहिया पूर्णतया नेहरुविरोधी ही चुके थे । पिछले पंद्रह वर्षों के उनके राजनीतिक अनुभव ने उनकी इस अवधारणा को प्रबल कर दिया था कि भारत की सभी समस्याओं का कारण पंडित नेहरू ही हैं, और उन्हें पदच्युत करके ही देश न्याय और प्रगति की राह पर आगे बढ़ सकता है । इसी कारण लोहिया दिनकर और नेहरू के घनिष्ठ सम्बन्धों पर बिगड़े रहते थे ।  

उधर दिनकर ने जेपी पर एक सम्पूर्ण कविता लिखी थी, और निधन के पश्चात नेहरू पर एक पूरी पुस्तक लिख डाली । लोहिया के लिए कुछ पंक्तियाँ इधर, तो कुछ उधर ही लिख पाये । लेकिन दिनकर ने जो भी लिखा, जितना भी लिखा, वह सब कुछ पूरे देश में गौर के साथ पढ़ा और स्मरण रखा गया । यहाँ तक कि बहुत कुछ ऐसा भी जो संभवतः उन्होने नहीं भी कहा । जैसे कि तिरपन में लाल किला पर हुए एक कवि सम्मेलन का ज़िक्र आता है ।  पंडित नेहरू के पहुँचने पर दिनकर और अन्य आयोजक उनकी अगवानी करके मंच तक ले जा रहे थे कि सीढ़ियों पर पंडितजी का पैर कुछ फिसला । तब उन्हें सहारा देते हुए दिनकर ने यह कहा बताया – “राजनीति जब-जब लड़खड़ाती है, साहित्य ही उसे संभालता है”, या फिर “राजनीति जब-जब लड़खड़ाई है, उसे साहित्य ने ही संभाला /ताकत दी है” । दिनकर जैसा कांतिमय व्यक्तित्व ही नेहरू जैसे उद्दीप्त सूर्य को भी प्रकाश दिखने की चेष्ठा कर सकता है, जनमत ऐसा मानता है । शायद इसीलिए ये किंवदंती सत्य की मुद्रा हासिल कर आज तक बुद्धिजीवियों के बाज़ार में प्रसारित हो रही है ।  


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