ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘ठाकुर का कुआं’ की व्याख्या

पहले कविता पर गौर फरमाइए  –

चूल्हा मिट्टी का,

मिट्टी तालाब की,

तालाब ठाकुर का ।

भूख रोटी की,

रोटी बाजरे की,

बाजरा खेत का,

खेत ठाकुर का ।

बैल ठाकुर का,

हल ठाकुर का,

हल की मूठ पर हथेली आपकी,

फसल ठाकुर की ।

कुआं ठाकुर का,

पानी ठाकुर का,

खेल-खलिहान ठाकुर के,

गली-मोहल्ले ठाकुर के,

फिर अपना क्या?

गाँव? शहर? देश?

शब्द जब तक मन से निकलकर जिह्वा पर नहीं आ जाते, तब तक अपने रहते हैं । जिह्वा पर आने के बाद जो उन्हें सुन सके वह अपना अर्थ स्वयं निकाल ले । और यही उकेर दिये जाएँ पन्नों पर, तो पढ़ने वाले की अपनी समझ है, शब्दों का अपना जीवन है, सोचने-बोलने-लिखने वाले की सोच से पूरी तरह स्वतंत्र । पढ़ने-सुनने वाला आपके शब्दजाल में बंधा है, आपकी सोच से नहीं । शब्दों का प्रणेता लाख स्पष्टीकरण देता रहे, उसके टीकाकार टिप्पणियाँ करते रहें परंतु कौनसा पाठक क्या निष्कर्ष निकालेगा, इसपर किसी का नियंत्रण नहीं है । होना भी नहीं चाहिए । नाव भले केवट की हो, यात्रा तो यात्री की ही मानी जाएगी । कविता के संदर्भ में देखा जाये तो पाठक की कल्पना पर किसी तरह की कोई बंदिश नहीं लगाई जा सकती, कवि के द्वारा भी नहीं । आपने दीया धारा में बहा दिया है, अब आपके हिस्से किनारा और दीये को अपने भाग्य का सहारा ।

ओम प्रकाश वाल्मीकि की इस सुंदर कविता को जातिवाद के पोषकों, नेताओं, वामपंथियों, बुद्धिजीवियों और साहित्य के कद्रदानों ने सिर-आँखों पर बैठाया है । कविता में लय है, वह सार-गर्भित है, उसमें कारुण्य का भाव है और रहस्यवाद का पुट है । ओम जी दलित साहित्य में बड़ा नाम रखते हैं । ‘झूठन’ नाम से उनकी आत्मकथा में दलित अनुभव का मार्मिक चित्रण है । ‘ठाकुर का कुआं’ में खेत जोतने वाले कृषकों की दयनीय स्थिति और सभी संसाधनों पर जमींदार के अधिकारों के बारे में बोला गया है । Sweat and toil of the tiller, revenue of the Sarkar and Estate of the Zamindar- यहाँ तक तो उचित है । इसपर कोई विवाद नहीं हो सकता । जमींदारी प्रथा में ये सब विसंगतियाँ तो थीं ही !

यह अलग बात है कि वाल्मीकि ने जमींदार शब्द प्रयुक्त न करके ठाकुर किया । क्या जमींदार और ठाकुर समानार्थी हैं ? क्या ठाकुर से अभिप्राय राजपूत से है या सभी क्षत्रियों से? क्या क्षत्रिय केवल राजपूत होते हैं? क्या कई जमींदार पिछड़ा वर्ग से और ब्राह्मण जाति से नहीं थे? अब कोई दावा करे कि इस कविता से राजपूतों की भावनाएं आहत होती हैं तो हो ही सकती हैं । आधुनिक युग में आहत होने का जन्मसिद्ध अधिकार हर व्यक्ति एवं वर्ग के पास  है । हर जमींदार ठाकुर नहीं था, और हर ठाकुर जमींदार नहीं होता था – ऐसे में पूरी जाति पर आक्षेप लगा देना और फिर संसद में, गलियों में, चौबारों पर उसे अनवरत लगाते रहने कितना न्यायसंगत है? लेकिन यहाँ पर यह स्वीकारने में झिझक भी नहीं होनी चाहिए कि अधिकांश जमींदार खूनचुसवा थे, क्यूंकी कोर्नवालिस ने जमींदारी प्रथा को लागू ही कृषकों का लहू और भारत की धरती की उत्पादकता को चूसने के लिए किया था ।

एक बात यह भी है कि ठाकुर शब्द पर राजपूत जाति का कोई कॉपीराइट नहीं है । मैथिल ब्राह्मणों में भी ठाकुर सरनेम लगाए जाते हैं । सबसे बड़े ठाकुर तो सबके पूजनीय ठाकुरजी भगवान श्री कृष्ण हैं । है तो फिर सब कुछ उनका ही – चाहे खेत-खलिहान हों, गली-मोहल्ले या तालाब, हल,बैल, मिट्टी, चूल्हा, रोटी, बाजरा, भूख, कुआं या फिर पानी । हमारे समाज में प्रचलित नियतिवाद के साथ भी यह फिट बैठता है । यह भी ध्यान रहे कि जैसे हर जमींदार राजपूत नहीं था, वैसे ही हर छोटा,लाचार, गरीब किसान दलित या अति-पिछड़ा नहीं है, बल्कि समाज के तथाकथित अगड़ा और पिछड़ा –हर वर्ग से है, और उस पर भी व्यवस्था की बुरी मार पड़ी है ।

आजकल एक अतरंगी तर्क दिया जाता है कि कवि या सुधारक अपने या आपके अंदर के ब्राह्मण या ठाकुर को मारने की बात कर रहा है, हिंसा के लिए नहीं उकसा रहा । यानि कि ब्राह्मणवाद का ब्राह्मण से और पूंजीवाद का पूंजीपति से कोई सरोकार नहीं है । यह सर्वथा उथला तर्क है । एक तरफ यह बुद्धिजीवी-आंदोलनजीवी वर्ग पुरुष सूक्तंम (ऋग्वेद मण्डल दशम) मे वर्णित शारीरिक विभाजन को अस्वीकार करता है, तो दूसरी ओर मानव देह के भीतर ब्राह्मण और क्षत्रिय तत्त्व विद्यमान होने का प्रोपेगेण्डा भी करता है । और फिर हैं-नहीं है अलग बात है, आपको अंग-भंग करने, हिंसा के लिए उकसाने और समाज की एकता को छिन्न-भिन्न करने का लाइसेन्स कौन दिया रे? तुम हो कौन बंधु जो समाज में इस तरह से विष फैलाते हो ? कैसे कोई सांसद संसद पटल पर ठाकुरों या ब्राह्मणों के विरुद्ध गरल उगल सकता है । और वह भी एक प्रोफेसर !

कुलमिलाकर ओम प्रकाश जी की कविता को दो सतहों पर सराहा जा सकता है –

1.)कृषि-भूमि व्यवस्था पर लघु किन्तु तीखी टिप्पणी के लिए ।

2.)सब कुछ ठाकुरजी अर्थात भगवान कृष्ण का होने के संदर्भ में – मेरा तो केवल कर्म है, फल की इच्छा मुझे नहीं ।

बाकी सब छिछोरी राजनीति है और इसलिए अस्वीकार्य है । इस देश में आप फिल्म का नाम बिल्लू बार्बर नहीं रख सकते, पर ठाकुर और ब्राह्मण पर खुलकर जातिसूचक फेंकने का अधिकार मांगते हैं ? स्वतंत्रता मिले पिचहत्तर साल से अधिक हुए, और हम अभी तक विक्टिमहुड के नाम पर कुछ जातियों के विरुद्ध जातिगत घृणा फैलाने में लगे हैं? ठाकुर हो या ब्राह्मण, घृणा का पात्र कोई भी नहीं बनना चाहता । अंबेडकर के संविधान के अनुसार आप उन्हें बना भी नहीं सकते । पर मौकापरस्त नफरती चिंटुओं को कैसे रोका जाये ?

 


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  1. Anonymous says:

    sabd jhut nhi bolte Kavita ki vyakhya upload kijye

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