उफ गर्मी बहुत है जमाने में,
दम-सा घुटता है तंग घुसलखाने में,
नीला आसमान ही अब छत है मेरी,
कितना मज़ा आता है खुल्लेआम नहाने में ।
चिलचिलाती धूप मे तप चुका तन,
रोंए उभारती मंद-मंद पवन,
ठहरा हुआ जल है ठंडा बहुत,
हल्के स्पर्श पर ही कुलांचे भर्ता मन ।
छिपकर नहाते तो भी स्वच्छ हो जाते, ‘
पर चार लोग हमें देखकर शीतल न हो पाते,
अकेले ही नहाये तो भी क्या ग़म है,
कोई रोकटोक नहीं, इतना क्या कम है ।
पानी भर-भर कर स्वयं पर उँड़ेला,
सूंड बस टेढ़ी अपनी,नहीं कोई और झमेला,
स्नान करके चल दिये अपनी मदोन्मत्त चाल,
कल तय समय पर आएंगे फिर गजराज विशाल ।
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beyond ordinary
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