मेरी कमीज़ की जेब में छिपकली रहती है (कविता)

मेरी कमीज़ की जेब में एक छिपकली रहती है, टंगी हो, तब साकार रहती है, पहनी होने पर उसका विचार रहता है. छिपकली का विचार क्या होता है? हिलना-डुलना मना है एकदम, मौत से स्थिर, पूर्णतया ध्यानमग्न, फेंक अभिलाषा की जिह्वा लंबी, फसा ले कीड़ा-कुटकुट, अपना भोजन, आड़ को ट्यूबलाइट चाहिए, या दीवाल घड़ी, या…

मोक्षदायिनी पुण्यसलिला (मेरी कविता)

तर्क जब भी उतरा तरंगिणी में, सदैव उसे परिवर्तित पाया, कल भी शिप्रा, आज भी शिप्रा, मुझे न अंतर समझ में आया, जब भी उतरा मैं सरिता में, माँ ने ममता से नहलाया, प्राणप्रदायी, पुण्यसलिला, मुक्ति याचक तट पर है आया, धवल जल में कर्म धो-धोकर, आंचल मैला हुआ सदानीरा, प्रवाहमान पर भक्ति भाव से,…

सड़क चकाचक बिछी हुई (मेरी कविता)

फसल कट गयी रे भाया, अब सूणो-सूणो लागे रे, धूप चढ़ गयी सिर पर म्हारे, आलस रो घोड़ो भाग्यो रे, सड़क चकाचक बिछी हुई, म्हूँ खूब दुड़ाऊँ फटफटिया, जद एक सड़क दो में बट ली, तो कठे मुड़ूँ तू या बतला, पेड़ एक कोणी रस्ता मह, ताप म्हणे घणौ लागे, पोल डल्या छ बजली का,…

आयु का खेल (मेरी कविता)

इतने वर्षों में यह तक जान नहीं पाया कि समय के साथ आयु बढ़ती है या घटती जाती है ? साथ समय के घटती है समझ, इतना तो हूँ समझता, वृद्ध भला क्या समझेगा वर्तमान को? अवस्था का लेकिन समझदारी से नहीं, लेना-देना है तो स्वप्नों के मूर्त विधान से,         (साकार होने से, tangible) परिवर्तन…

हर समय ही संक्रमण काल है (कविता)

हर समय ही ‘संक्रमण काल’ चल रहा होता है, हर समय परिवर्तन की बयार बह रही होती है, यह घड़ी-भर निकल जाये, अबकी बार स्वास्थ्य ठीक हो जाए, अबके चुनाव जैसे-तैसे निपट जाएँ, यह परीक्षा पूर्ण हो जाये, स्थानांतरण हो सकता है, अब हो जाने दिया जाये, ऋतु तो बदल जाने दो, बाज़ार गिरा हुआ…

अपनी घंटी पर मैं अब खुद ही बैठूँगा (मेरी कविता)

अपनी घंटी पर मैं अब खुद ही बैठूँगा, बजने से पहले फरमाइश पूरी कर दूंगा, तलब लगे जो चाय की तो है केटली तैयार, बोतल भर रख लिया है पानी, प्लेट में अल्पाहार, सिगरेट-गुटका वैसे बैन हैं, मँगवाने ही नहीं हैं, टिफ़िन, तश्तरी सजे मेज पर, चिंता ही नहीं है, फाइलें ढोना कल की बातें,…

अरुणिका की प्रतीक्षा (कविता)

टूटते अंधेरे से फूटती पौ में बिछी काली सड़क की देह विद्यमान है, अनवरत बहते यातायात से किन्तु   स्वप्न और संकल्प सप्राण हैं .   मदधम शीतल पवन में, धीमे-से सरसराती झाड़ियाँ, पास आते वाहनों का दंभी कोलाहल, दूर जाते हुओं के वेग का आवेग, उड़ती हुई पन्नियाँ और धूल, बिखरे पड़े कागज़ और…

अब नहीं जागूँगा (कविता)

अब नहीं जागूँगा, तो कब जागूंगा? अब नहीं भागूंगा, तो कब भागूंगा? जाग कर करना क्या है, यह पता नहीं, भाग कर जाना कहाँ है, नहीं जानता, कहाँ पता करना है, किससे पूछें जाना कहाँ है, कोई नहीं बताएगा, सब के सब स्याले केवल उलाहने देंगे, देते ही रहेंगे ।   गाय नहीं हूँ कि…

बड़े परिवार में जन्मा मोहब्बत का मसीहा ! (कविता)

अपनी मातृभूमि को नफरत का बाज़ार बताने वाला, मोहब्बत को दुकान पर बिकता पकवान समझने वाला, जनसेवा को जनता पर एहसान समझने वाला, समर्थन न देने वालों को नादान समझने वाला, स्वतंत्र वर्तमान को खानदानी इतिहास का ग़ुलाम समझने वाला, सर्वोच्च सत्ता को बपौती का सामान समझने वाला, वोटों के लिए जयश्री राम को हराम…

धंधा या वंशवाद ? (कविता)

वकील का लड़का जज बनेगा,जज का लड़का वकील,वंशवाद नहीं, धंधा है ये,तुम देते रहो दलील,ज्यादा दुखता हो पेट में,तो कर दो फाइल अपील,काले कौवे सारे मिलकर,कर देंगे तुम्हें ज़लील. कहते हैं व्यवस्था इसको,चलता इसमें खून-पैसा-जुगाड़,औलाद ही बाप की वारिस है, बाप खोलता है बंद किवाड़,दोष न निकालो अगले का,चलना सबको यही है दांव,है पास में…

उधड़ूँ थोड़ा, थोड़ा बुन लूँ (कविता)

मन की इच्छा लिखने की है, पैरों को पर चलना है , बरस रही है बरखा रिमझिम, मौसम में भी रमना है, छाता टांगू, जूते पहनूँ, या बैठ मेज पर भाव उड़ेलूँ, कलम चलाऊँ या फिर पैर, करूँ कविता, कर आऊँ सैर, चलते-चलते सोचूँ-सोचूँ, लिखते-लिखते उड़ ही जाऊँ, उधड़ूँ थोड़ा, थोड़ा बुन लूँ, त्रिशंकु बन…

छुक-छुक प्रश्न (कविता)

तटीय क्षेत्र, अनंत विस्तार, सागर और वसुंधरा को पृथक करती पेड़ों की प्राचीर । न अभी-अभी स्टेशन से छूटी है, न ही गंतव्य में प्रवेश कर रही है, यात्रा के मध्यरत दृष्टिगोचर हुई यह छुकछुक गाड़ी – क्या रुकी है, या फिर है गतिशील? चित्र यह नहीं कह पाएगा, न ही सुना सकेगा किसी प्रकार…