न लड़ा, न जीता कोई चुनाव, फिर क्यूँ धरती पर नहीं पड़ रहे पाँव (कविता)

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मैं नहीं जीता किसी चुनाव में, फिर भी हृदय गौरान्वित है,

न कद बढ़ा, न पद मिला, फिर मन क्यूँ इतना आल्हादित है?

तेरा भी क्या नुकसान हुआ, क्या दांव चला जो हार गया,

बहुत मुंह चढ़ा कर बैठा है, आखिर क्यूँ इतना उद्वेलित है?

बिना वजह की खुशी है प्यारे, आज जम कर फोडूंगा पटाखे,

चाहे लेना एक न देना दो, पर कहीं हलवा तो खिलवा दे,

कोई भले नहीं देख रहा था, खूब लगाए मैंने नारे,

फूलमाला लेकर भटक रहा हूँ, किसी नेता से मिलवा दे ।

चेनल की चली दुकान, पत्रकार ने पेशा धर्म निभाया,

नेता का चमका कैरियर, वर्कर ने पसीना बहाया,

अफसर को कल था जहां छोड़ा, आज वहीं मँडराता पाया,

मेरे जैसे आम आदमी का- न कुछ होना था, न हो पाया ।

वाद-विवाद में तर्क-कुतर्क कर अड़ बैठा मित्रों से,

जात-धर्म को गिना-गिनाकर लड़ गया अपनों से,

सुबह-शाम-दिन-रात मैंने चुनावी खबरें चलाईं,

कंगाल होकर भी दिमाग से, करवाई चेनलों की कमाई । 

ठगा नहीं है कोई मुझको, मैं हूँ ही अब्दुल्लाह,

बेगानी शादी में आखिर करता हूँ हो-हल्ला,

वोट भर देना था, मैंने सेहरा ही जा बांधा,

सपनों की घोड़ी पर चढ़कर सपना ही जा लांघा !


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