एक टंगी हुई साँझ (कविता)

पीली, शुष्क, ज्येष्ठ की साँझ में,

मद्धम पवन मदोन्मत्त हो,

महीन धूल को इधर से उधर कर रही है –

नीम की शाखें लहलहा रहीं,

वायु के स्पर्श का अनुभव मुझे भी हुआ,

पर मेरे वस्त्र-केश एवं मार्ग पर बैठा कुत्ता अलसाए पड़े हैं,

यह साँझ कुछ टंग सी गयी है,

लगता है अब कुछ घड़ी यून्ही टंगी रहेगी ।

सुन्न सी पड़ी है समस्त कोहेफिज़ा,

भ्रमण पर जो निकला तो मैं चलता ही चला,

यह आस के पंख हैं या पलायन के पाँव,

घर में धरा क्या है जो लौट कर जाऊँ?

पहाड़ी पर से नगर कितना व्यस्त सा दिखता है,

भीषण गर्मी का सूरज क्यूँ आसक्त-सा लगता है,

अब अस्त हो भी जाये तो कहीं और बढ़ूँ,

चढ़ूँ-उतरूँ घाटी से या उतरूँ पुनः चढ़ूँ ।


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