किस्से-कहानियों का अकबर सर्वव्यापी है । बहुतेरे साधु-संतों के संग अकबर की मुलाकातों की किंवदंतियाँ प्रचलित हैं । बीरबल के किस्सों के हिसाब से अकबर सवालों, पहेलियों और गप्पों का भी बादशाह था । सत्यान्वेषी अकबर दीवान-ए-खास में बैठकर विभिन्न धर्माचार्यों के साथ धर्मचर्चाएँ किया करता था । बर्बर बाबर और कठमुल्ले औरंगजेब जैसे धार्मांध शासकों ने जिस देश में राज़ किया हो वहाँ अकबर जैसा समदर्शी भी गद्दी पर बैठा । तभी तो हिन्दू प्रजा ने तो उसे सिर-आँखों पर बैठाया ही, किस्सागोई करने वालों ने कितने ही प्रसंग अकबर की शान में गढ़ दिये । वैसे तो ज़िल्लेसुभानी की चाटुकारिता अबुल फज़ल ने अकबरनामा लिखकर अकबर के समय में ही आरंभ कर दी थी , पर वामपंथी इतिहासकारों ने इन लोक-कथाओं का इस्तेमाल जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर को महान से आगे महानतम साबित करने के लिए किया ।
डाक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी कृत उपनिषद गंगा सनातन धर्म की व्याख्या हेतु निर्मित एक उत्कृष्ट धारावाहिक है । धर्ममर्म के अन्वेषणार्थ बनाए गए इस कार्यक्रम के विभिन्न एपिसोड्स में अकबर को मीरा, हरिदास, तुलसी और सूर से मिलते हुए दिखाया गया है । मीरा से भेंट तो समयांतराल के चलते ही असंभव थी, बाकी भक्ति संतों से भी अकबर कभी मिले हों, ऐसा कहीं ज़िक्र या कोई साक्ष्य न अकबरनामा, न ही किसी सरकारी दस्तावेज़ अथवा संस्मरण में मिलता है ।
मीरा का देहावसान 1556 में हुआ । अकबर की उम्र तब महज चौदह वर्ष थी और गद्दीनशीन हुए एक बरस ही हुआ था । तानसेन का मुग़ल दरबार में आगमन 1562 में जाकर हुआ । ज़ाहिर है अकबर और तानसेन का मेड़ता जाकर मीराबाई के भजन सुनना और गिरिधर गोपाल के दर्शन कर भेंट चढ़ाना कपोल-कल्पित घटना से अधिक कुछ नहीं है । फिर यह सब दिखने की क्या जरूरत थी ?
दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में सन 1760 का एक चित्र संरक्षित है जिसमे स्वामी हरिदास सफ़ेद धोती धारण किए हुए विराजमान हैं, तानसेन उनके समक्ष बैठे हैं और पीछे शहँशाह अकबर खड़ी हुआ मुद्रा में चित्रित हैं । स्वामीजी के हाथ में तानपुरा है , और वह अवश्य ही धुनी रमा रहे हैं । चित्र मनोरम है एवं कथा अत्योत्तम, पर संभवतः सत्य नहीं है । प्रसंग यह है कि एक बार बादशाह ने तानसेन की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए संगीत सम्राट के गुरु को भी देखने-सुनने की इच्छा ज़ाहिर की । तब तानसेन ने इसे एक दुरूह कार्य बताया क्यूंकी हरिदास का दरबार में आना संभव नहीं था और सम्राट अगर बृंदाबन चले भी जाएँ तो भी गुरुजी को सुन पाना सरल नहीं था । हरिदास सिर्फ एकांत में, अपनी इच्छा से और केवल अपने ईष्ट की महिमा में ही गाते थे । तब अकबर और तानसेन बृंदाबन रवाना हुए और बादशाह ने छद्म वेश धारण कर चुपके से स्वामी जी को सुना । इस भेंट का ज़िक्र इतिहास में कहीं नहीं मिलता । फिर क्यूँ द्विवेदी जी ने इसे पर्दे पर उतारने का कष्ट किया ?
मात्र अकबर के सर्वधर्मप्रेम का ढिंढोरा पीटने वालों ने ही नहीं, भोले-भाले भक्तों ने भी इन कहानियों को बढ़ावा दिया है । मानो अकबर के बृंदाबन आकर मिल लेने से सूर और हरिदास का ओहदा बढ़ जाता हो, या मीरा के मेड़ता की महिमा में वृद्धि हो जाती हो । डाक्टर द्विवेदी ने अपने धारावाहिक में अकबर को सूरदास से भी मिलवा दिया । क्या यह सब संयोग मात्र है ? या हम लोग गंगा-जमना तहजीब के प्रचार-प्रसार के लिए किसी भी गप-कहानी का सहारा लेंगे और लेने देंगे ? कहते हैं अकबर ने सूरदास की सहायता करनी चाही पर जिसके हृदय में स्वयं गोपाल का वास हो, उसकी मदद क्या कोई बादशाह करेगा ?
अकबरी चीयरलीडर पिछले चार सौ बरसों से तुलसीदास और बादशाह की मुलाक़ात या संपर्क साबित करने का प्रयास कर रहे हैं । तुलसी के कुछ जीवनीकारों ने लिखा है कि गोस्वामी जी के चमत्कार दिखाने से इंकार करने पर नाराज़ होकर अकबर ने उन्हें कारावास में डलवा दिया था । फिर या तो बंदरों ने या प्रजा ने ऐसा हुल्लड़ मचाया कि उन्हें रिहा कर देना पड़ा । इस घटना के बारे में उस समय के किसी इतिहासकार ने लिखना उचित नहीं समझा । टोडर मल तो तुलसी के जजमान थे और उन्हें सुरक्षा और रहने के लिए काशी में भवन उपलब्ध करवाया था । रहीम से भी तुलसी के साहित्यिक संबंध थे । आखिर दोनों कवि ब्रज भाषा में ही लिखते थे । लेकिन फिर भी अकबर और तुलसी के मिलने और उन्हें सुरक्षा या सहायता प्रदान करने का कोई प्रमाण कहीं नहीं मिलता । पर चाटुकारों को समझाये कौन? आगे बढ़कर वे सेकुलरवाद की सेवा करते हुए यह भी कह देते हैं कि तुलसीदास ने मानस की रचना ही एक मस्जिद में रहकर की थी । कुछ गंगा-जमना के दीवाने तुलसी संग्रहालय, जयपुर में रखे एक चित्र का हवाला देते हैं जिसमे अकबर और तुलसी की भेंट को दर्शाया गया है । इनमे से कोई भी क्लेम प्रामाणिक नहीं है । लगता नहीं कि बादशाह और गोस्वामी जी आपस में कभी मिले थे। चंद्रप्रकाश द्विवेदी को यह पता न हो, यह संभव नहीं ।
सिखों में मान्यता है कि अकबर गोइंदवाल साहब गुरुद्वारे (तर्न तारण) जाकर गुरु अमर दास से मिले थे। गुरु के आदेशानुसार न केवल बादशाह ने आम लोगों के साथ लंगर में बैठकर भोजन किया, बल्कि गुरु की बेटी को अमृतसर की जमीन भेंट में दी । इन घटनाओं का ज़िक्र भी न सिख न ही मुग़ल दस्तावेज़ों में होता है , और बाकी मुलाकातों की तरह यह भी मिथ्या ही जान पड़ती है । सिखों ने चंदा करके गुरु राम दस के समय में अमृतसर के लिए ज़मीन का इंतेजाम किया था ।
अकबर की राजनीति कितनी धर्म-निरपेक्ष थी , और व्यक्तिगत तौर पर वह सर्वधर्मसमभाव और सुलहेकुल में कितना विश्वास रखता था , कहा नहीं जा सकता, पर एक हज़ार बरसों में इतना उदार मुस्लिम शासक कोई और नहीं हुआ यह निश्चित है । अकबर ने जज़िया भी हटाया और हिन्दू त्योहारों को दरबार में मनाने की प्रथाएँ भी आरंभ कीं । उसने राजपूत मित्र और रिश्तेदार बनाए और इन रिश्तों को एक हद तक निभाया भी । जहां तक ज्ञात है कोई बड़े मंदिर को अकबर के काल में विध्वंस नहीं किया गया और धर्मांतरण के प्रयासों में भी कमी आई । अकबर महान अवश्य था , लेकिन लेकिन उसकी उदारता को किस्से-कहानियों के द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना इतिहास के साथ खिलवाड़ होगा । सच यही है कि वह मीरा, हरिदास, तुलसी,सूर और अमर दास- किसी से भी नहीं मिला, जबकि उसके प्रशंसक इन्हीं भेंटों का हवाला देकर उसके बड़प्पन की ताल ठोकते हैं ।
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