जाति का जंजाल – ज पर आ की मात्रा, त पर चढ़ी छोटी इ (चौपाल)

शाम के चाय अड्डे पर दोस्तों के संग जाति पर संवाद किया । फिर कहीं प्रीतिभोज पर जाना पड़ा तो वहाँ भी जाति का ही भोग लगाया । पिछड़े व्यंजन में लगा था मिर्च का छौंका । अगड़ा वाला घृत और शक्करमयी – उसे फिर भी थाली में आने का अनिवार्य आमंत्रण चाहिए ।

शयन से पूर्व टीवी डिबेट में जो जातिसूचक बोले नहीं गए पर जताए गए, उन्हें सुना । लघुशंका और ट्वीट में जाति-जाति जपकर सो गए । रात्रि के अंधेरे में जाति-संग सहवास किया । जनेहु उतारे अथवा वस्त्र – अंतर्द्वंद्व में फसा रहा । फिर स्मरण हुआ अब धागे का जनेहु नहीं पहनते हैं, बस मानस उपनयन है । निरोध पहने न पहने फर्क नहीं पड़ता, कर्ण के जन्मजात कवच-कुंडल तो हैं ही । कर्ण कौन जात था भाई? इसी उधेड़बुन में रतिकाल कट गया ।

सवेरे उठते ही जात का कुल्ला किया । जाति का ही मल त्याग भी किया, और जाति ही मूती ।

फिर आईटी चौपाल, यानि की व्हाट्स एप खोल लिया और शुभारंभ किया जाति-पांति वाद-विवाद प्रतियोगिता का । चाय की प्रतीक्षा है, नाश्ते में जाति से काम चला लेंगे । समाचार पत्रों में जात तलाशेंगे, दोपहर के भोजन में जाति ही लेंगे । बीच-बीच में सोशल मीडिया पर ज आ की मात्रा, त इ की मात्रा डालते-खोजते और मिल जाने पर भड़कते रहेंगे ।

एक आम हिंदुस्तानी, जो स्वयं को थोड़ा भी पढ़ा-लिखा और जागरूक मानता है, यह उसकी दैनिक चर्या है । वह राइट से खाये चाहे लेफ्ट से धोये, निकाल जाति ही रहा है । लेकिन फिर भी वह जातिवादी नहीं है । नो वे ही इज़ ए कास्टिस्ट ! केवल इतना है कि वह चाय-चर्चा-चौपाल से किसी तरह भी नहीं बच सकता, ये भले संभव है कि रतिक्रिया में उसे पीला अथवा रेड कार्ड मिल जाये ।

बाबासाहब ने यह नहीं कहा था – जब तक चाय बनाने के लिए चाय पत्ती उबाली जाति रहेगी, छोटे इ और बड़े इ की मात्रा आपको जाति का संज्ञान करवाती रहेगी । अच्छा हुआ नहीं कहा, वरना हम नीम की पत्तियाँ उबाल कर पी रहे होते ।


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