
हंगामा है क्यों बरपा,
मुँह से निकला एक शब्द ही है,
न्याय ही तो है माँगा,
लिंचिंग तो नहीं की है.
सड़कों पे नहीं बैठा,
बेअदबी तो नहीं की है,
कुछ सवाल ही हैं पूछे,
दलाली तो नहीं ली है.
सच्चाई उगलती, तीखे सवाल पूछती प्रदीप भंडारी की जिह्वा से हिंदी का एक आधिकारिक शब्द क्या निकल गया, तब से यह युवा पत्रकार तमाम वामपंथियों, लिबरलों, अराजक तत्वों, जिहाद समर्थकों, देशद्रोहियों और भाषा के ठेकेदारों का शीर्ष टार्गेट हो गया है.
और क्यों न हो भला?
अराजकता के इस दौर जहाँ लखीमपुर- जशपुर- भोपाल में राह चलतों को गाड़ियों से कुचला जा रहा है, शरारती तत्त्व सड़कों को बाप की ज़मीन मान कर जमे बैठे हैं और देश तथा समाज को अस्थिर करने के षड्यंत्र रचे जा रहे हैं, प्रदीप भंडारी – सरीखी सच्ची और मुखर आवाज़ सबके कानों में खटकती है. इसीलिए कुछ स्वघोषित विद्वान और पत्रकारिता की अंतरात्मा का बोझा ढोने का स्वांग भर रहे सियार फ़रसे- गंडासे लेकर भंडारी की ओर दौड़ पड़े हैं ताकि यह आवाज़ बंद करा सकें.
देश का युवा यह सब जानता है. दुर्जनों ने बहुत कोशिश की ट्विटर पर भंडारी के खिलाफ माहौल बनाने की. पर टॉप ट्रेंड अन्तः क्या हुआ? लाखों ट्वीट हुए #ISupportPradeepBhandari करके! जनता से जनता की भाषा में बात करने वाला, लोगों की बात सुनने- कहने और tv पर रखने वाला ही आज के युग में वास्तव में पत्रकार कहलाने लायक है.
रही बात ‘झाँट’ की, तो शब्दकोश के अनुसार उसका मतलब ‘हीन, तुच्छ और निकम्मी वस्तु’ भी होता है. जैसे ‘The Hindu’ हिंदुओं का मुखपत्र नहीं है, वैसे ही ‘झाँट- बराबर’ का मतलब ‘not equal to public hair’ नहीं है. स्पष्ट है कि मुद्दा शब्द का तो है ही नहीं, बल्कि सारी कवायद इस बात की है कि प्रदीप के उठाये सवालों के जवाब किसी को न देने पड़ जाएं. झाँट पर हल्ला करके बहस ही गौण कर दी जाए.
कोई सुशांत सिंह राजपूत के अंत से जुड़े असली सवाल न पूछ ले! ड्राइवर, पत्रकार और भाजपा कार्यकर्ताओं की पीट- पीट कर हत्या करने वालों का अब तक क्या हुआ, यह न बताना पड़ जाए! सिंघु बोर्डर पर बेअदबी के नाम पर तालिबानी अंदाज़ में गरीब दलित की नृशंस हत्या कर देने का क्या मकसद है, कोई न जान पाए! ब्रेक इंडिया गेंग कैसे संचालित हो रहा है ये भेद न खुलने पाए! बंगाल में क्या चल रहा है, ये कोई न बताये! लाल किले की घटना के ज़िम्मेदार कौन, ये कोई न पूछे! चुनी हुई सरकारें क्यों घुटने टेक कर बैठी हैं, ऐसा कोई न कहे!
इस ‘वोक्’ युग में युवाओ से संवाद करने हेतु सत्यता, भरपूर ऊर्जा और नवीन एवं बोलचाल की भाषा की आवश्यकता है. हाँ, प्रदीप थोड़ा संयम और बरत सकता था, और आगे बरतेगा भी, पर जो उन्मादी माहौल में आपा खो दे ,वह भी एक संवेदनशील और ईमानदार इंसान ही होगा!
वामपंथी – लिब्रांडू नामकरण में बहुत उस्ताद हैं. कौन ग्रेट है, कौन जिंदा पीर, कौन किसका चाचा हुआ और कौन प्रियदर्शी एवं प्रियदर्शिनी- इसका फैसला, उसका अनुमोदन और स्वीकृति वह अपने हाथों में सुरक्षित रखते हैं. तो ऐसे ही मार्क्स, मोहमडंस और मिल की गोदियों में बैठने वालों ने अपने विरोधियों को ही करार दे दिया – गोदी मीडिया! राष्ट्र, धर्म, कानून- व्यवस्था, आर्थिक और कृषि सुधार, जिहाद आदि मुद्दे उठाने वाला – गोदी मीडिया. और इसके इतर है पाकिस्तान से अमन की आशा दिखाने वाला, दिवाली को जश्न- ए- रिवाज़ कहने वाला, जाति का जहर घोलने वाला, परिवार भक्ति में लिप्त, उर्दू वुड का पोषक, पाकपरस्त, चीनी पिट्ठू , नितांत वोक् और पश्चिम का गुलाम मीडिया!
इसीलिए देश हित में और सत्य की खातिर ‘जनता का मुकदमा’ चलते रहना ज़रूरी है. अराजक तत्वों को बेपर्दा करते रहना वक्त की पुकार है. राष्ट्रहित में निडर होकर व्यवस्था से प्रश्न पूछते रहना और हर मुद्दे की तह तक जाना ही आधुनिक पत्रकारिता का सार है.
प्रदीप भंडारी, संघर्ष करो! युवा तुम्हारे साथ है!
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