अर्धखुले दृगों से उदीयमान सूर्य को नमन करता ,
अनमनी टांगों को रगड़ता-धकेलता,
विवशता में सवेरे सैर को निकला
मेरा रसिक मन , और स्थूल शरीर.
सूनी सड़क के दोनों ओर कतारबद्ध
रुद्रपलाश,सेमुल के उल्लासित वृक्षों के मध्य,
स्वागत करती मद्धम,शीतल वासंती हवा,
सड़कें लाल ,फूलों से लदालद पेड़ भी लाल ।8।
चलता –सरकता , कभी हाँफता-दौड़ता ,
आवारगी में मत्त मैं गलियाँ नापता ,
कुत्तों से करता कूं-कूं,बिल्लियों से म्याऊँ-म्याऊँ ,
कौवों-कबूतरों को दाना-चुग्गा डालता,
चहकता-गुनगुनाता कब चढ़ गया एक फ्लाईओवर पर
नहीं जानता , मेरे मन्तव्य में कोई गंतव्य था ही नहीं ,
तभी दाहिने हाथ पर दृष्टिगोचर हुआ ,
लौहायस्क पत्तियों वाला एक खजूर का पेड़ ।16।
धातु के गुलदस्तों में
प्लास्टिक की फूल-पत्तियाँ देखी थीं,
लेकिन लकड़ी के तने पर
लहलहाती लोहे की पंखुड़ियाँ
देखकर मैं ठिठक गया,
निर्निमेष ताकता रहा बहुत देर-
मायने क्या थे आखिर
ऐसी विलक्षण वस्तु के दर्शन होने के ? ।24।
मेरे बाएँ कंधे पर
दहक रहा था प्रतापी भास्कर ,
चकाचौंध-भरी पीली रौशनी में
मैंने नीचे की ओर झाँका ,
दोनों ओर बह रहे थे बदबूदार नाले
जल कुमुदिनी से भरे हुए ,
सहसा मेरा ध्यान पड़ा आगे की अनिर्मित सड़क पर
अनिर्णय,आलस्य के चलते शायद काम अधूरा छोड़ा गया था ।32।
क्या कहीं जाने के लिए निकला था ये रास्ता ,
क्यूँ अविकसित भ्रूण की तरह अवरुद्ध हो गया इसका विकास ,
हर उस अधजीये जीवन की तरह
जिसे पहुँचना तो होता है
किसी न किसी पड़ाव तक लेकिन
इच्छाशक्ति के अभाव में
और लौहखजूर जैसे विचित्र प्रादुर्भावों के चलते
थमा हुआ पड़ा रहता है ।40।