वोट पर चोट – भीषण गर्मी बनाम धर्मसंकट

भैया, बात तो ठीक है तुम्हारी कि धर्म, समाज, देश और जीवनचर्या खतरे में है, इसलिए वोट देना अत्यावश्यक है । पर कौन सा धर्म खतरे में है यह तो कह देते ! हिन्दू पक्ष प्रचार करता है हिन्दू खतरे में है इसलिए हरेक हिन्दू का वोट पड़ना ही चाहिए । मुसलमान चिल्लाता है कि मुसलमान खतरे में है इसलिए सारी कौम को लामबंद होना पड़ेगा । सिक्खों की सिक्खी और इसाइयों की विदेशी डोनेशन खतरे में हैं, अतः उन्हें भी कमर कसनी होगी । मेरे विचार में आदमी न डोडो है न डाइनोसौर, उसके विलुप्त होने की कोई संभावना दृष्टिगोचर नहीं होती । इसलिए अगर कोई स्वयं को मानवमात्र ही समझे तो उसे दबाव लेने की आवश्यकता नहीं है । उसका काम वोट नहीं देकर भी चल सकता है । वैसे भारत का लोकतन्त्र खतरे में है ऐसा भौंकने वाले विदेशी वोट दे नहीं सकते और उनके टुकड़ों पर पलने वाले देसी एजेंट सोशल मीडिया पर धमाल मचा कर प्रसन्न रहते हैं । कुलमिलाकर हमको डरा-धमकाकर हमसे न वोट न ले पाइएगा ।

लेकिन इतना तो मानना पड़ेगा कि गर्मी बहुत है जमाने में । देश की आबादी भी बहुत जियादा है । जहां भी वोट देने में नंबर लगेगा, कतारबद्ध तो होना ही पड़ेगा । वोट देने के चक्कर में लू लग गयी तो कौन संभालेगा ? धूप में झुलस गए तो क्या फेयर एंड लवली लगाइएगा ? वोटर की शिकायत भी ठीक है कि चलो कभी-कभार पड़ गया मौका तो झेल भी लें, लेकिन यह क्या कि हर पाँच साल बाद आप भीषण ताप में देशव्यापी चुनाव रखवा देते हो और आशा करते हो बेचारे निरीह मतदाता से कि वह जाकर आपकी निकासी में नाचे ।आप हमें नपुंसक भी कह सकते हैं जो धर्म रक्षा हेतु  गर्मी तक से नहीं लड़ सकता, पर अब क्या करें? डरकर  2004 से देख रहा हूँ । यह लगातार पांचवा चुनाव है जो अप्रेल-मई में करवाया जा रहा है । इस प्रचंड ताप को टालने का अवसर यूपीए के पास भी था और भाजपा के पास भी । चाहते तो इस क्रम को भंग कर सकते थे । दो महीने पहले चुनाव करवा लेने में क्या ही हर्ज़ था ? नहीं तो आम सहमति से कानून बनाकर दो महीने टाल ही देते । आपको जनता की परवाह होती तो अब तक ऐसा कर चुके होते । पर सारे धर्मों और लोकतन्त्र का ठेका तो जनता अपने सिर पर टिकाए बैठी है, वही अपना देख ले । तो देख रही है ।  

कई शहरों में वोट देकर लौटने वालों को अंगुली का निशान दिखाकर पोहा-जलेबी बांटा जा रहा है । मेरे मित्र ने नाश्ते के एवज़ में एक दुकान पर छाछ, ठंडाई, आम का पना, शर्बत, गन्ने का रस अथवा कोल्ड ड्रिंक में से कुछ भी देने की डिमांड रखी तो उसे यह कहकर टरका दिया गया कि कलक्टर साहब का आग्रह केवल पोहा-जलेबी के लिए है । साहब यह कैसी खानापूर्ति है? एहसान करना ही है तो पूरा कीजिये । शीतल पेय मिल जाता तो कमसकम कुछ तो राहत मिलती ।

ऐसा ही एक बिनमांगा एहसान मतदान के दिन किया जाने वाला सरकारी अवकाश है । अरे मूर्खशिरोमणियों, नीतिनिर्धारकों, तुम जो भी हो ज़िला प्रशासन वाले अथवा चुनाव आयोग वाले, थोड़ी तो बुद्धि का प्रयोग कर लिया करो । सरकारी कर्मचारी को मतदान के दिन दफ्तर जाकर वहीं पर बने मतदान केंद्र पर मत देने के लिए बाध्य करो, न कि इस भीषण गर्मी में उसे दिनभर सोते रहने का बहाना प्रदान करो । ऑफिस जाये और वोट दे, फिर अपना काम करे । लोकतन्त्र की पुण्यतिथि है क्या जो राजकीय अवकाश कर दिया जाता है । मैं आज तक इस बेवजह की जाने वाली छुट्टी का लाभ नहीं समझ पाया हूँ । कोटा में, जहां मुझे वोट देना था, मतदान 26 अप्रेल को था । लेकिन मैं इंदौर में कार्यरत हूँ जहां चुनाव 13 मई को है । चूंकि 26 तारीख को इंदौर में अवकाश नहीं था तो मैं वोट देने कोटा गया नहीं, और 13 मई को जब जबर्दस्ती की छुट्टी मुझपर थोपी जाएगी तो मैं या तो आवारगी करने निकलूँगा या फिर एसी चलाकर बिस्तर तोड़ूँगा । 13 मई की पीक गर्मी में कोई भी सामान्य व्यक्ति जो न लाभार्थी है, न किसी धर्म का सिपाही, न ही जिसका मौसा-फूफा चुनाव लड़ रहा है और न जिसे वोट देने के लिए पैसा ही मिल रहा है, वह केवल वोट देने के लिए ही गरम भट्टे में क्यूँ कूदेगा? हाँ, उसका दफ्तर लग रहा होता, तो हर दिन की तरह वह मन-मारकर पहुंचता और फिर आता तो बटन भी दबा मरता । तब पोहा-जलेबी से भी काम चल जाता ।

कुछ लोग शादी-ब्याह जैसे समारोहों में व्यस्तता के कारण वोट देने नहीं पहुँच पाते । उन्हें गरियाना बेकार है, वे सामाजिक दायित्व के बोझ तले दबे लोग हैं । कई हैं जो राजनीति से रुसवा हैं, जिन्हें नेताओं ने नाउम्मीद किया है । उनका बॉयकॉट तो फुली जायज़ है । कुछ लोग पिकनिक मनाने निकल जाते हैं । जो ऐसी गर्मी में भी इतना उत्साही है उसके जीवन की खुशी राजनीति की मोहताज नहीं है, उसपर समय मत खराब कीजिये । वह मन ही मन आप लोगों को चूतिया समझता है । दुकानदार और दिहाड़ी मजदूर वोट दे सकें इसके लिए बाज़ार बंदी और प्रलोभन इत्यादि काम कर सकते हैं । प्रवासी मजदूरों के वोट देने के लिए कोई अतिरिक्त व्यवस्था नहीं की जा सकती, इसलिए अपना मन न मारें । सरकारी कर्मचारी सौ फीसदी मतदान करें, ऐसा लक्ष्य रखा जाये । अस्सी का कुल आंकड़ा छूना इतना भी कठिन नहीं है जितना प्रशासन ने माहौल बना रखा है ।

उपाय और भी हैं जैसे ऑनलाइन वोटिंग, महीने भर की मतदान विंडो इत्यादि पर उन सब पर मैं फिलहाल शब्द ज़ाया नहीं करूंगा क्यूंकी क्या है कि माई-बाप-हुज़ूर में इच्छाशक्ति का अभाव है ।  कुछ भी करने की बजाय सभी राजनीतिक दल, मीडिया, चुनाव आयोग और सोशल मीडिया इन्फ़्लुएंसर आदि चिरकुट जनता को वोट नहीं करने पर उलाहने देने लगते हैं । स्यालों इतनी ही फिक्र है तो करवा दो क्लाउड सीडिंग से हल्की-फुलकी बरसात । मौसम सुहाना होगा तो निकलेंगे वोट देने ग्रीष्मकाल में भी । नहीं तो आवाम से थोड़ी सहानुभूति रखते हुए 2029 में चुनाव की तिथियाँ थोड़ी आगे-पीछे खिसकाने की कवायद करो । मीडिया और सोशल मीडिया चिरकुटों को चाहिए कि आगे से भीषण गर्मी में चुनाव टालने के लिए राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे पर दबाव बनाने हेतु जनमत तैयार करें । वोटिंग सेल्फ़ी, पोहा-जलेबी जैसे चोंचले अब पुराने हो चुके हैं, थोड़ा-सा सामान्य विवेक प्रयुक्त करें और विनम्रता से जनता से आग्रह करें ।


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