टांय टांय फिस्स- पंकज त्रिपाठी ने ‘मैं अटल हूँ’ की डुबोई लुटिया  

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पंकज त्रिपाठी मेरे प्रिय समकालीन अभिनेताओं में से हैं । मानता हूँ उनकी रेंज बहुत अधिक नहीं है, परंतु सहज भाव , सुहृदयता, सादगी, ईमानदारी और अथक परिश्रम उनके व्यक्तित्व और कलाकारी से सदैव झलकते रहे हैं । वाजपेयी के रूप में जब उनकी कास्टिंग हुई थी तो यह अंदेशा नहीं था कि इस प्रक्रिया के दौरान वह पूर्णतया खुल जाएंगे । पर यहाँ तो वह हुआ जो कोहली और लोकेश राहुल के साथ 2023 के विश्व कप फाइनल में घटा था । (युवराज बनाम मलिंगा का 2014 t20 फाइनल का उदाहरण भी सटीक रहता, पर आजकल पाठकों की याददाश्त उतनी नहीं रही ) । मजबूर होकर पंकज दो घंटे तक जैसे-तैसे अटल बने रहे, इस दौरान बेहद खराब अभिनय और उससे भी घटिया मिमिक्री करते पकड़े गए, पर न डाइरेक्टर ने पगबाधा करार दिया, न ही क्रीज़ से बाहर जानकर विकिटकीपर ने गिल्लियाँ ही बिखेरीं । ऐसे गुड़गोबर की उम्मीद न थी । लाइन, लेंथ, बाउंस – हर आयाम पर गच्चा खा गए । पंकज त्रिपाठी से दरअसल गलती नहीं हुई, सही मायनों में उनके खेल की कलई खुल गयी ।  कच्चा तैराक लहरनुमा गहरे जल में पकड़ा गया, कोई करे तो क्या करे?

अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व के कुछ अहम पहलू थे, जिन्हें उनके प्रशंसक उनके किसी भी रूपान्तरण में ढूँढने ही वाले थे –

तीक्ष्ण संवाद शैली, साहित्यिक हिन्दी में रमी हुई ओजस्वी भाषा, कसावट-भरा व्यक्तित्व, विनोदप्रियता, कविनुमा तबीयत, खाने-पीने का शौक, जीवन में नवरस की उत्कंठा, अपने कार्य को राष्ट्र-निर्माण से जोड़कर देखना, अपनी बात को जनता के पैरोकार बनकर रखना इत्यादि। भाव-भंगिमाएँ भी उनके चरित्र चित्रण का महत्वपूर्ण भाग थीं, पर मीडिया एवं आम जन इन्हें अतिशयोक्तिपूर्वक वर्णित करते थे /हैं ।

और यहीं पंकज भाई फसा गए । उनका अभिनय माथा झटकाने, हाथ उचकाने और आँखें झपकाने पर ही केन्द्रित हो कर रह गया, संवाद हवा हो गए, वाद-विवाद में ठहराव तो महसूस ही नहीं हुआ । आपातकाल के बाद दिए गए अटल जी के भाषण ‘बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने…’ का नाट्य रूपान्तरण भागा-भागा सा प्रतीत होता है । राम जन्मभूमि आंदोलन के समय 5 दिसंबर 1992 को लखनऊ में नैसर्गिक आक्रोश और राजनीतिक चतुराई से लबरेज उनकी हुंकार ‘कार सेवा करके सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवेहलना नहीं होगी, उनके आदेश का पालन किया जाएगा’ में जिस अवश्यंभावी कृत्य की चेतावनी या भविष्यवाणी परोसी गयी थी, उसकी उग्रता का लेशमात्र भी त्रिपाठी से नहीं उठ सका । न तो पोखरण के संदर्भ में न ही लाहौर में दिये गए भाषण प्रभावशाली बन पड़े हैं और न ही फिल्म में विश्वास अथवा अविश्वास प्रस्तावों के दौरान दिये गए उनके तीव्र व्याख्यानों को प्रस्तुत किया गया है । नेहरू और इन्दिरा के सदन में रहते दिये गए कुछ एक स्पीच अवश्य हैं, पर वे भी भाव-भंगिमाओं में उलझ कर रस्म-अदायगी स्तर पर सीमित रह गए हैं । कहना न होगा कि पंकज त्रिपाठी हिन्दी के अच्छे वक्ता ही नहीं हैं, यदि होते तो अटल की आत्मा को छू पाना इतना दुष्कर कार्य भी नहीं था ।

आश्चर्य इस बात का है कि व्यंग्य अथवा विनोद में की गयी उनकी टिप्पणियों को भी पंकज जी संभाल नहीं पाये ।‘संसद में बैलगाड़ी’, ‘बंजर लेह-लद्दाख’ और ‘दहेज में पाकिस्तान’ जैसे मज़ेदार मौकों पर भी उनका अभिनय कचोट-सा जाता है । एक ईमानदार अभिनेता को, जिसके कौशल का आप सम्मान करते हैं, इससे ज्यादा और कितने उलाहने दें? वे स्वयं भी अवश्य ही लज्जित होंगे । ऐसा लगता है जब अटल जी सक्रिय थे, तब पंकज जी ने संसद और समाचारों पर अधिक ध्यान नहीं दिया, वरना इतना खराब प्रस्तुतीकरण न होता । आज जब मैं पंकज त्रिपाठी के विकल्पों के बारे में सोचता हूँ तो मेरी दृष्टि आशुतोष राणा (उत्कृष्ट विकल्प) एवं पीयूष मिश्रा पर आकर टिकती है । पीयूष ने इसी फिल्म में कृष्ण बिहारी वाजपेयी (पिता) के रोल के साथ न्याय किया है ।

‘मैं अटल हूँ’ के अनुसार आडवाणी जी को पोखरण परीक्षणों की पूर्वसूचना नहीं थी, और बाकी केबिनेट के साथ ही उन्हें भी सफलता मिलने के बाद ही सूचित किया गया था । यह सरासर गलत प्रस्तुति है । अटल ने आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडेज़ और बृजेश मिश्र- इन तीनों को विश्वास में लिया था । एपीजे और चिदम्बरम तो मुख्य पात्र थे ही । फिल्म में मुंबई महाधिवेशन के घटनाक्रम को बढ़िया से फिल्माया है, जहां पर सभी को हतप्रभ करते हुए (अटलजी को भी) लालजी ने अटल जी को बीजेपी का पीएम उम्मीदवार घोषित कर दिया था ।

फिल्म में बहुत से ऐतिहासिक क्षणों को छूने का प्रयास किया गया है – अटल और उनके पिता ग्वालियर कॉलेज में रूममेट्स, अटल श्यामाप्रसाद मुखर्जी के राजनीतिक अनुयायी के रूप में, दीनदयाल उपाध्याय के साथ राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, स्वदेश और वीर अर्जुन के लिए काम करते हुए, लालजी के साथ सिनेमा हाल में, विदेश मंत्री के रूप में, बीजेपी गठन के समय, राम मंदिर आंदोलन, पोखरण, लाहौर बस यात्रा, कारगिल युद्ध इत्यादि । इसके अलावा राजकुमारी कौल, भट्टाचार्य जी और परिवार का प्रसंग । इतने अल्पकाल में सब कुछ दिखाकर सार्थक फिल्म परोस पाना संभव नहीं है । लेकिन हम भारतीय सीखना नहीं चाहते । पश्चिम में किसी समय या घटना-विशेष पर केन्द्रित करके फिल्म बनाई जाती है जिसके माध्यम से ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डल जाता है । यह उसके जीवन-मरण का लेखा-जोखा नहीं होता, न ही उसका सीवी ही । बल्कि उस नायक की छवि, बोलने-चलने के तरीखे और कार्य करने की शैली को उभार-भर दिया जाता है । स्टीवन स्पीलबर्ग ने लिंकन में यही किया था । जो राइट ने भी डार्केस्ट आवर में चर्चिल को ऐसे ही प्रस्तुत किया था । वाजपेयी पर आधारित फिल्म भी एक सीमित समयावधि पर केन्द्रित होनी चाहिए थी ।

‘मैं अटल हूँ’ में पंकज त्रिपाठी और निर्देशक रवि जाधव ज़बरदस्त फ्लॉप हुए हैं । लेकिन निराशा का कोई कारण नहीं है । इतने भर हुआ कि आपकी गहराई नाप गयी । अटल जी कहा करते थे – न टायर, न रिटायर; इन्हें भी आगे बढ़ना है । हालिया फिल्मों को देखते हुए पंकज को चेत जाने की सख्त आवश्यकता है । कडक सिंह में पंकज बेमन से अभिनय करते दिखे, और फिर मर्डर मुबारक में अपने अनावश्यक देसीपन से उन्होने ही फिल्म को गर्त में खींच लिया । परहेप्स ही नीड्स ए ब्रेक । प्रशंसकों को बोर करने से बेहतर है जंगलों में भटककर बोर ढूंढें और खाएं ! स्वयं को दोबारा खोजने हेतु कलाकार को बीच-बीच में गायब हो जाना चाहिए ।


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