
हर वह मनुष्य एक श्रमिक है जो निर्वहन के कुचक्र में फसा होने के चलते अपने समय और अपनी क्रियाशीलता का स्वामी नहीं है । जिसकी घड़ी उसकी मनोदशा के हिसाब से नहीं चलती, जिसे शिथिलता त्याग कर इच्छा के विपरीत और समय के अनुसार जुगत लगानी पड़ जाती हो, वही एक कामगार है । लेकिन कुटिल कार्ल मार्क्स ने हमारे जैसे बंधुआ कर्मचारियों, स्वरोजगारी पेशेवरों, और दिमाग के घोड़े दौड़ने वाले करतबियों को बुर्जुआ करार दे दिया । वामियों के अनुसार बुर्जुआ पूँजीपतियों से भी बड़े शत्रु हैं । मार्क्स ने अपनी कुटिल राजनीति चमकाने के लिए मानसिक श्रम को श्रमिक की परिभाषा से ही पृथक करके हमें कहीं का नहीं छोड़ा । उसके हिसाब से मजदूर वही थे जो शारीरिक श्रम करके जीवनयापन करे, बक़ौल उसके आप और मैं तो बस भालू-भेड़िये हैं – उत्पीड़क वर्ग के सदस्य, पूंजी के दमनकारी एजेंट!
जबकि सच यह है जीवन तो हमारा भी दिनचर्या में ही बंधा है । मासिक वेतन की आस हमें एक विशिष्ट जीवनशैली में ढाले रखती हैं । भले हमारे कार्य-विवरण और पदनाम राजसी एवं रौबदार सुनाई दें, तनखैया होने के नाते आखिर हुए तो हम भी मजदूर ही । समय पर कोई वश नहीं, जीवनचक्र में फसे हुए मजदूर । राष्ट्रपति होकर भी आपको वेतन प्राप्त होता है, कलाकार होकर भी आप परिश्रमिक जुटाते हैं- इसलिए आपको भी श्रम दिवस की हार्दिक शुभकामनायें । वेतनभोगी केवल अपना वेतन भोग सकता है, आलस्य भोगने की महत्वकांक्षा वह कहाँ पाल सकेगा? मुख्य बात इतनी सी है- मजदूर भोग नहीं पाता, वह भुगतान लेता है और होनी को भुगतता है । न वह स्वतंत्र है, न ही समय पर उसका नियंत्रण है – उसे दफ्तर पहुँचना है, लॉगिन करना है, काम करते जाना है, फिर किराया देना है, ईएमआई भरना है, बच्चों की स्कूल-फीस जमा करानी है । पार्टी-पिकनिक में भी वह दायित्व निर्वहन के तौर पर ही सम्मिलित होता है, कभी खुल कर मज़े लेने पहुँच गया तो अगली सुबह का दफ्तर या बच्चों का स्कूल उसे सालता रहता है । बड़ा बेचारा-सा प्राणी है । और कुछ नहीं तो पति को पत्नी और पत्नी को पति द्वारा दी गयी समय की मोहलत का सम्मान भी रखना है ।
सोता है वह- ऐसा करना आवश्यक है , पर ठीक समय पर उठने के लिए सोता है । मजदूर खाता-पीता भी है- कभी कभी शौकिया भी, पर सीमा में रहकर और हैसियत के अनुसार, अनुशासन के साथ ताकि कार्य में बाधा न पड़े । पढ़ता है तो नौकरी पाने के लिए, लिखता है तो परीक्षा में अच्छा करने के लिए । कला को भी समय देता है, सब देते हैं, समाज में रहना है तो जानकारी जो रखनी पड़ेगी । कार्यवश अथवा परिवार के साथ भ्रमण पर भी निकलता है- सारिणी बनाकर, अड्वान्स बुकिंग करवाता है । श्रमजीवी के जीवन का एक प्रमुख आधार है प्लानिंग । योजना बनाना उतना सटीक नहीं लगता जितना कि प्लानिंग करना । प्लानिंग करके सफल हुआ जा सकता है, स्वच्छंद नहीं । स्वच्छंद वह है जो काल और स्थान से परे है । स्वछंद ही श्रमिक का सटीक विलोम है ।
इस लेख को लिखने का प्रयोजन श्रमिक, मजदूर, कामगार को नीचा दिखाना नहीं है, उल्टे केवल इतना स्पष्ट करना कि व्यवस्था भले हमें पेशेवर, अफसर, कलाकार, खिलाड़ी, स्वामी, साहिबज़ादे इत्यादि मानती रहे, पर हैं हम सभी मजदूर ही । दिहाड़ी भले न हों, मासिक वेतनभोगी ही सही । हमारी आमदनी कोंट्रेक्चुअल होगी, अथवा सालाना । हम से मतलब बुर्जूआ से है, राजपरिवार और राजनेता अपने आप को हम से अलग समझते हैं और हैं भी । वे जोंक अथवा दीमक की श्रेणी में आते हैं ।
आप लिखते तो हैं पर यदि प्रकाशक द्वारा निर्धारित समयसीमा का दबाव आप पर भारी है तो आप श्रमिक हुए । आप बाजारू भी हुए यदि आपको पाठकों की रुचि के हिसाब से लिखने का फरमान प्राप्त है । श्रमिक कला का सृजन भी धनोपार्जन हेतु करेगा । वैज्ञानिक के अंदर का श्रमिक उसे वेतनभोगी बनाए रखेगा । मजदूर खिलाड़ी का ध्यान इश्तहार और मैच फीस पर टिका रहेगा । अपनी दुकान, अपना व्यवसाय, अपनी क्लीनिक अथवा कानूनी प्रेक्टिस खोल लेने से ही कोई स्वतंत्र नहीं हो जाता । समय और कोश के प्रतिबंध में काम करने वाला मजदूरी ही करता है, साहबी नहीं झाड़ सकता । मजदूरी एक मनोस्थिति है जो मनुष्य को सौन्दर्य बोध और भोग से वंचित रखती है और कालचक्र में फसाए रखती है । वामपंथियों का मत कि मजदूर एक ऐसी मशीन है जो निश्चित देय के एवज़ में पूंजी को और अधिक पूंजी में परिवर्तित कर देता है, उचित ही जान पड़ता है ।
इस स्पष्टीकरण को खींचकर कुछ तर्कशास्त्री क्षुधा और वासना को भी ग़ुलामी की जंजीरों के समान ही बता देते हैं । उनकी यह उपमा सर्वथा मूर्खतापूर्ण है । उच्छृंकल होकर भूख-प्यास एवं वासना पूर्ति में लिप्त हो जाना ही जीवन का परमध्येय है । वास्तव में भोगना यही है, वरना कामचलाऊ खाना-पीना और सहवास तो हर प्राणी करता ही है । खेल, कला, विज्ञान, धर्म सब का गंतव्य और निचोड़ इतना ही है । इसी उद्गार के साथ सभी कामगार बंधुओं को श्रम दिवस की बधाइयाँ प्रेषित करता हूँ । मार्क्स-लेनिन-माओ करें कि इस वर्ष आप कर्मशीलता और कर्मण्यता को ताक पर रखकर आनंद सरोवर में गोते लगाए और परतंत्रता की जंजीरों को तोड़ डालें । कम से कम जंजीर की एक लड़ी को तो खोल सकें, कुछ प्रगति तो हो…..वरना कोई रूसो फिर कहीं कहता ही होगा कि हमारे पास खोने के लिए क्या ही है, सिवाय इन बेड़ियों के ?
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