
बीत गए भले बत्तीस साल,
जो लहू गिराया था अब तक है लाल,
श्वासें हैं अब भी गर्म,
स्मृतियाँ भावभीनी, नम.
अयोध्या में गुंजायमान हैं आज तक,
चिरकाल तक देंगे सुनाई,
गोली-खाते रामसेवकों के अंतिम उद्घोष,
कैसे भुला दिए जाएं इस कठोर के समस्त दोष?
मृत्यु में कहाँ क्षमादान निहित है?
ऐतिहासिक मूल्यांकन में निजी व्यवहार अनुपस्थित है.
अपनों के ठेकों की खातिर,
तुरुष्कों से नमक-हलाली करने वाले,
भक्तों की लाशें गिरवा कर,
वोटों की दलाली करने वाले,
तेरे द्वारा उपकृत मेरे मापक नहीं हैं,
तेरा यशोगान करने वाले आदर्श नहीं हैं,
इतिहास तेरी छवि को हत्याकांड से ही जोड़ेगा,
यह संसार भी तू रामनाम पर ही छोड़ेगा,
तेरी जय-जयकार करने वालों से कोई सरोकार नहीं,
आदिपुरुष के रावण-रूप तक में तू स्वीकार्य नहीं.