कई उपन्यास पढ़े हैं तीन-चार सौ पन्नों के । लेखक लिखते चले जाते हैं पर संसार बसाना तो दूर , एक चरित्र ठीक से नहीं ढाल पाते । यहाँ कृष्णा सोबती ने मात्र 98 पृष्ठों की लंबी कहानी में न सिर्फ एक बड़े परिवार के दैनिक जीवन का लेखा-जोखा निकाल कर रख दिया , बल्कि हिन्दी में शायद पहली बार एक स्त्री की दैहिक पिपासा और आवश्यकताओं को खुलकर रेखांकित भी किया । मित्रो (सुमित्रावंती) केवल धनवंती की बाग़ी बहू और सरदारी की शोख बीवी ही नहीं , एक आत्ममुग्ध महिला भी थी जिसे अपनी शारीरिक जरूरतों का पूरा इल्म था ।
ऐसा नहीं है कि उसके पति सरदारी में दोष था , पर मित्रो एक ‘जरनैली नार थी जिसे पार पाना किसी कोई छोटे-मोटे मर्द के बस का काम नहीं था’। हफ्ते-पखवाड़े में सरदारी एकआध बार उस व्याकुल मछ्ली की तड़प मिटा पाता था । उस युग में भारतीय नारी अपने अधिकारों को लेकर उतनी मुखर नहीं थी ,और स्त्री-पुरुष संवाद में उतना खुलापन नहीं होता था । मित्रो अपने ढ़ोल (पति) की बेरुखी की वजह से तनावग्रस्त रहती और इस चलते उसके लोक व्यवहार में उतार-चढ़ाव भी देखने को मिलता । कभी अपनी सास को तपाक से जवाब देती , कभी भाभी और देवरानी को छेड़ती । उसके खीज-भरे तानों और द्विअर्थी संवादों को लेखिका ने गजब की भावनात्मक ऊर्जा और कलात्मक उत्तेजना से उकेरा है ।
मित्रो कभी तो नींद से उठाए जाने पर सास से पूछ बैठती कि क्या ‘दूध-मलाई खिलाने के लिए उठाई हो माँजी’। खूब टेढ़ा-मेढा भी बोलती पर जब देवरानी सास पर तीखे बाण चलाती तो मित्रो सास का मान-मर्दन भी न होने देती । कभी अपनी छातियाँ दिखा-दिखाकर भाभी से पूछती कि क्या किसी और की ऐसी छतियाँ देखी हैं ? कभी भाभी को किसी परपुरुष संग संसर्ग करने के अपने सपनों के बारे में बताती , तो कभी अपने ढ़ोल की नाकामी का राग आलापती । एक बार तो भाभी ने उसे रज़ाई में हिलते देख (खुद को खुश करते हुए) धक्का दिया और सपनों में घोड़े उड़ाने पर झिड़क लगाई । कभी खुद ही अपनी महकती काया और दुर्दशा पर मनन करती – “अनोखी रीत इस देह की, बूंद पड़े तो थोड़ी , न पड़े तो थोड़ी” । मित्रो के तरकश में शाब्दिक बाण सदैव तैयार रहते , और मौका लगने पर बेबाकी और निडरता से वह अपने शिकार को बींध देती थी ।
मित्रो गुरुदास और धनवंती के परिवार की मँझली बहू थी । सास-ससुर बूढ़े हो चले थे । उनके अरमान अब सीमित थे – परिवार की सुख-शांति ,औलादों को संतान सुख , व्यापार और खानदान की आबरू में बढ़त और अदब-नियम-कायदे-संस्कारों का पालन । इतने बरस गृहस्थी की गाड़ी साथ में खींचने के पश्चात दोनों के हित, चिंताएँ, शौक और दुख एक समान हो चुके थे –मानो भाई-बहन ही हों । इस रिश्ते की गहराई को भी कृष्णा जी पूरी शिद्दत से उभारा है ।
बड़ा बेटा बनवारी बहुत जिम्मेदार था । उसकी पत्नी सुहागवंती सुहृदया थी और सास-ससुर ,देवर-देवरानियों की बड़ी पूछ करती थी । धनवंती को बनवारी और सुहाग पर बड़ा अभिमान था । बनवारी की बात तो ऐसे मानती थी कि मानो बेटे की आज्ञाकारिणी बेटी हो।
मित्रो और सरदारी का रिश्ता धौल-धप्पे का अधिक था , साथी-संगिनी का कम । बाज़ार में रसिक-भांड मित्रो से मित्रता के कसीधे कढ़ते तो सरदारी इस छेंटाकशी से आहत रहता । घर आकर जब मित्रो पर कड़ाई दिखाता तो वह आँख दबाने के बजाय उल्टे उलाहने देती और बराबर की बजाती । सास-ससुर-जेठ ने जब घर में ही पंचायत बैठाकर सीधे पूछताछ करना चाही तो वहाँ भी मित्रो दबी नहीं बल्कि खुल कर दहाड़ी । अपने ऊपर लगाए गए बदचलनी के आरोपों को उसने अदालती लहजे में ‘न सच,न झूठ’ करार दिया । यह भी डंके की चोट पर स्वीकारा कि पति द्वारा उपेक्षा के चलते वह ‘कुछ मनुक्खों के साथ हंसी-मज़ाक कर लेती है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पति का दिया राजपाट छोड़ कर किसी कोठे पर जा बैठी है’ ।
ऐसा भी नहीं था कि मित्रो ने ढ़ोल-जानी को रिझाने में कोई कसर रखी हो । झिमाते समय एक बार बोली कि “चाहो तो मेरी यह चिकनी चुपड़ी सौत निगल लो, न हो तो मुझे ही चबा लो” । “ न थाली बांटते हो , न नींद बांटते हो….अपने दुख ही बाँट लो “ कहकर अपनी जमा पूंजी पति के हवाले कर दी थी । पति से प्यार तो था , पर उसके जोश पर पूरा भरोसा नहीं था । फिर भी कहती थी – “खांड का बतासा और नून का डला घुलकर ही रहेगा” । कहानी के अंतिम चरण में शर्बती ओठों से वह पति के मुंह पर साकल लगा देती है , और चुम्मे भी जड़ती है । कृष्ण सोबती ने इज़हार में कहीं कोई कसर बाकी नहीं रखी ।
सहवास को लेकर मित्रो के मन में कोई घिन , भय या संदेह नहीं था । देह हया का कारण नहीं , सुख का जरिया बनना चाहिए , ऐसा उसका मत था । मित्रो की माँ भी आज़ाद विचारों की थी और दोनों दिल खोल कर बातें छौंकते थे । गौर फरमाइए इस एक संवाद पर –
माँ – दिल में लहर हो तो बुलाऊँ तेरी बगीची के लिए कोई माली ?
मित्रो- ओढनी तले दो पंछी मचलने लगे हैं ….
मित्रो के ख्याल उन्मुक्तता को तलाशते हैं – “अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य , दूजे डालें तो कुकर्म” । कल्पना कीजिये यह कहानी 1967 में प्रकाशित हुई थी ।
विचारों का घनत्व और जीवंत की प्रांजलता का अनूठा मिश्रण कृष्ण सोबती के उदीयमान सम्प्रेषण कौशल को दर्शाता है । मानवीय स्वातंत्रय और नैतिक उन्मुक्तता को बढ़ावा देती ‘ मित्रो मरजानी’ हिन्दी साहित्य में एक मील का प्रस्तर मानी जाती है । निज के प्रति सचेत रहें और समाज के प्रति चेतना रखें – जीवन की संपूर्णता सिद्ध करने हेतु यह निहित है और यही इस कहानी का ध्येय है ।
That is very interesting, You are an overly professional blogger.
I’ve joined your feed and look ahead to in search of more of
your excellent post. Additionally, I’ve shared your
site in my social networks
LikeLike