किसी नए नगर में बस जाने से, पुराने घर नहीं छूट जाते, आज भले मैं हूँ कहीं पर, काशी, कलकत्ता याद नहीं आते ? दर्शन करते हुए महाकाल के, क्यूँ कालीघाट पहुँच जाता हूँ, रसगुल्ले चाहे हों ‘गागर’ के, स्वाद ‘बलराम मलिक’ का पाता हूँ ! सब्जी लेने पहुंचा बिट्टन, गाड़ी लगा बेलियाघाटा में, फिर…
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एक टंगी हुई साँझ (कविता)
पीली, शुष्क, ज्येष्ठ की साँझ में, मद्धम पवन मदोन्मत्त हो, महीन धूल को इधर से उधर कर रही है – नीम की शाखें लहलहा रहीं, वायु के स्पर्श का अनुभव मुझे भी हुआ, पर मेरे वस्त्र-केश एवं मार्ग पर बैठा कुत्ता अलसाए पड़े हैं, यह साँझ कुछ टंग सी गयी है, लगता है अब कुछ…
तेरह साल बाद बाइज्ज़त बरी – पुलिस को लताड़, निचली अदालत पर चुप्पी
अभी हाल ही में अनुसूचित जनजाति का एक युवक 13 बरस का कारावास काटकर भोपाल जेल से रिहा हुआ । उच्च न्यायालय ने उस पर लगे हत्या के आरोप को सिरे से खारिज कर दिया । माननीय न्यायालय ने तीखे स्वर में पुलिस की भर्त्सना की और समूची जांच को मनघड़न्त, गैर-जिम्मेदार और विद्वेषपूर्ण पाया…
सत्या एकदम डेंजर था, भीखू तो बस बदनाम हो गया
बार का दरवाजा खुलता है । हेंडल खिंचने की आवाज़ सुनाई देती है । क्या यह सत्या की अंतरात्मा की आवाज़ है? या फिर मौत की ? शायद उसपर चढ़े हुए बदले के फितूर की हो? ऊंची वॉल्यूम पर गाना बज रहा है – हाँ मुझे प्यार हुआ, प्यार हुआ अल्लाह मियां , भरी बरसात…
मैं भी परशुराम (कविता)
एक हाथ में फरसा मेरे, दूसरे में वेद हो, शोषण होते देख मुझको परशुराम-सा क्रोध हो, आततायी को अनुशासित करना मेरा नित्य कर्म, सनातन की सेवा ही हो अब से मेरा परम धर्म ।4। कर सकूँ बेधड़क होकर गोवंश तस्करों का संघार, काँप जाएं सहस्त्रार्जुन-संतति सुनकर मेरी सिंह दहाड़, राम को भी टोक सकने का…
नौकरी के अक्षर – संज्ञा, विशेषण, क्रिया या विस्मयादिबोधक ?
इक्कीस अप्रेल को सिविल सेवा दिवस मनाया जाता है । किसी मित्र ने फेसबुक पर एक कविता साझा की, जिसमे विभिन्न सेवाओं के तीन-चार अक्षरों वाले एक्रोनिम, यानि परिवर्णी शब्दों के अधिकारी के नाम से जुड़ जाने, और उनसे उत्पन्न होने वाले दुष्प्रभावों पर प्रकाश डाला गया था । यह लघु कविता मुझे वस्तुस्थिति के…
Ambedkar’s WAITING FOR A VISA – Six Cases depicting the practice of Untouchability
The so-called untouchables were not considered as full-fledged citizens, and were denied any kind of recognition and rights. It is they, who were supposed to be eternally in wait for visa. I am not sure if Ambedkar coined the title himself, or someone else did, for the autobiography was published by People’s Education Society as…
हम चौंकते क्यूँ हैं ? (कविता)
हम हर साल चौंकते हैं, वो पूरे साल याद रखते हैं, हम हर साल चौंक क्यूँ जाते हैं – अरे ये क्या हुआ, कैसे हुआ, वो पूरे साल याद कैसे रख पाते हैं – अबके ऐसे ही फसाद करना है, पत्थर जमा करते रहो, बोतलों में पेट्रोल भर कर रखो, हम चौंकते हैं क्यूंकी…
मैं हूँ क्या? मैं क्या हूँ ? (कविता)
मैं हूँ क्या ? और मैं क्या हूँ ? क्या हैं एक ही प्रश्न के दो रूप, अथवा दो भिन्न दार्शनिक पहेलियाँ? तर्क-वितर्क की नूरा कुश्ती, हिन्दी भाषा की अकड़ या लचीलापन, केवल वाक्य विन्यास की बाल-सुलभ क्रीडा, या मस्तिष्क में लगा कोई परजीवी कीड़ा? अब क्या शब्दों के अनुक्रम पर भी संदेह करूँ? बेहतर…
गिरते हुए फूल (कविता)
माना शाख पर सजे हुए तुम अतिशय सुंदर दिखते हो, कितने गर्व से मदमस्त होकर लेकिन धरा पर गिरते हो, हँसकर खिलना, शान से गिरना, गिर जाने पर भी खूब महकना, ये हमसे तो ना हो पाता है, कोई जाने लगता है अपना तो, हमको रोना आता है . साँसों के रहते तो हम भी…
क्यूँ श्रम करे व्यर्थ जब हरामीपन चल जाए (कविता)
कचरा स्वाहा कर दिया उसने उठाने के बजाए, क्यूँ श्रम करे व्यर्थ जब हरामीपन चल जाए, झुके, सोरे, अरे कितनी बार उठाए! कमर बेचारे की हाय बार-बार कराहे, गंदगी ढोकर शहर से बाहर ले जाये, कूड़े के पहाड़ पर कितना और कूड़ा गिराए? दुर्गंध से बेचारे की नाक सड़-सड़ जाये, इससे बेहतर है थोड़ी शानपट्टी…
Who is in Charge? (Poem)
The sun has set, now I sit down, Gaze thoughtlessly at scattered clouds, The sight gets lost in hilly tracts, still basking in the afterglow. I sink into a goddamned couch, watch the horizon disappear, It is all transient, I realize! Blow out warm breath in resignation. Mist, darkness, mad chirping of birds, The great…