
आनंद भवन संग्रहालय में सोया पड़ा था एक सेंगोल । काल उसे चुका था पूरी तरह भुला । नेहरू ने माउण्टबेटन से उसे स्वीकार तो कर लिया था, परंतु उसके बाद पोंगल प्रदेश से आया यह सेंगोल गुमनामी के अंधेरे में खो गया । संग्रहालय में इसे पंडित जी की छड़ी या बेंत बताकर दिखाया जाता था । दशकों से भारत की संप्रभुता का यह प्रतीक प्रतीक्षा में था समय के करवट बदलने की । वैदिक रीतिनुसार अभिमंत्रित इस सेंगोल ने विदेशियों द्वारा निर्मित पार्लियामेंट में कभी प्रवेश नहीं किया । अब जबकि स्वदेशी संसद का निर्माण कार्य पूर्ण हो चुका है और अनावरण की बेला का आगमन हो चुका है, सुप्त सेंगोल ने भी हुंकार भरकर अपने अस्तित्व की घोषणा कर दी है । इस पवित्र राजदंड को विधिवत लोकसभाध्यक्ष की कुर्सी के बगल में एक पोडियम पर स्थापित किया जाएगा ।
जयजयकार पक्ष को लगता है कि उनके हाथ इंद्र का वह वज्र लग गया है जिसे पुरंदर ने बाल हनुमान को दे मारा था । हाहाकार पक्ष कह रहा है कि सेंगोल का इतिहास ही गोलमोल है । चुनावी टीकाकार इसमें दक्षिण का राजनीतिक भूगोल साधने की चाल देख रहे हैं । इतिहासकर चोल वंश की गौरवशाली परम्परा को पुनर्जागृत होते हुए देख रहे हैं । ध्यातव्य है कि पोनियन सेलवन अरिमोली वर्मन यानि राजराज चोल ने भी बहुत से मंदिरों, विशेषकर राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था । अमृतकाल कहें, या लाभार्थी युग, बात इतनी सी है कि अच्छे दिनों की बहुतायत ने भारत को ऐसे गौरवशाली वर्तमान में ला कर खड़ा कर दिया है जहां से देखने पर भविष्य में भी अभ्युदय ही दृष्टिगोचर होता है । जिस देश में गांधी के तीन बंदरों एवं बकरी और नेहरू के गुलाब पर भी अनेकानेक किस्से और टीकाएं छपी हों, वहाँ इस पावन सेंगोल के अवतरण पर इतनी तल्खी समझ से परे है ।
जाने क्यूँ पंडित जी ने सेंगोल को ठेलकर इलाहाबाद भेज दिया था । फिर ये राजदंड कालयवन की तरह विदेशी मूल का तो है नहीं, भले सात दशकों से अधिक से कंदरा में सोया पड़ा हो । यह तो उस शिवधनुष की भांति भारतवर्ष की परंपरा का प्रतीक है जो ऐसा रखा गया कि किसी अन्य से नहीं उठा । केवल महावीर या सिद्ध पुरुष होने से नहीं होता, उसे अधिकारपूर्वक उठाने के लिए आपको अवतारतुल्य होना पड़ता है । आशा है कि मेरा आशय आप समझ गए होंगे । इलाहाबाद का प्रयागराज हो जाना भी बदलाव का द्योतक ही है ।
अमृतकाल में विषपान करने को मजबूर निंदकों और द्वेषियों को यह सेंगोल प्रसंग हवाबाजी, राजनीतिक कलाबाजी, शिगूफ़ा, जुमला, नौटंकी, नीचता, नेहरू जी का मान-मर्दन इत्यादि जाने क्या-क्या लग रहा है । वहीं अमृतकाल में सतयुग भोग रहे अनुयायियों को नयी संसद, सेंट्रल विस्टा, तीन सौ सत्तर, राम मंदिर, काशी कॉरिडॉर और महाकाललोक के बाद अब पाक-अधिकृत कश्मीर और अखंड भारत का स्वप्न भी पूरा होता दिख रहा है । क्या पता यह सेंगोल अखंड भारत की संप्रभुता का प्रतीक ही हो ? या फिर सनातन राष्ट्र का? इसपर नंदी बना है, और तमिल भाषा में कुछ अंकित है । कुछ तमिल मठाधीशों ने इसे ब्रिटिश वायसराय को सौंपा बताया । चिढ़ने के इतने सारे कारण कम नहीं होते । बाकी विरोध के लिए विरोध करने का अधिकार भी लोकतन्त्र आपको देता ही है । ठीक उसी तरह जैसे समर्थन के लिए समर्थन करने का अधिकार देता है ।
मीडिया और सोशल मीडिया के युग में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के ईवेंट मेनेजमेंट बनकर रह जाने का खतरा तो है ही । लेकिन यहाँ पर यह बात गले नहीं उतरती कि पंडितजी ने सेंगोल को इसलिए किनारे रख दिया था क्यूंकी यह राजशाही का प्रतीक था । राजवंश की नींव तो आखिर उन्होने भी डाली ही । गौरतलब है कि नेहरूजी एंड ब्रिगेड ने ब्रिटिश सम्राट के दूर के संबंधी माउण्टबेटन को भारत का गवर्नर-जनरल बने रहने दिया, जबकि ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं थी । जिन्ना ने भी तो उसे पाकिस्तान से बेदखल कर स्वयं पाकिस्तान के गवर्नर-जनरल का पद संभाल लिया था । नेहरू को न ब्रिटिश राजशाही के नुमाइंदे से कोई समस्या थी, न ही भारत के राष्ट्रमंडल का सदस्य बने रहने से, जिसका नेतृत्व ब्रिटेन और उसके राजवंश के पास था । सेंगोल सनातन परंपरानुसार धर्मदंड है और शासक को उसके कर्तव्य और अधिकारों का बोध कराता है । भूत और वर्तमान में सेंगोल पर यही सबसे बड़ी आपत्ति हो ।
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