दुहज़ारी निवृत्त, दसिया विकृत

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बात तब की है जब दुहज़ारी की नोटबंदी नहीं हुई थी. दु हज़ार चालीस रुपये जेब में लिए- लिए भक्कु पूरे तीस हजारी में फिर लिया, पर न अपनी चाय- सिग्रेट की तलब मिटा सका, न ही गन्ने का रस अथवा कोल्ड ड्रिंक पी कर प्यास ही बुझा पाया. दुहज़ारी बस बटुए की शोभा है, इतना तो भक्कु को इल्म था, पर दस- दस के चार सिक्कों पर उसे थोड़ा भरोसा था कि इनके रहते कम से कम भूख- प्यास से नहीं मरूँगा. जेब में खनकते सिक्के उस स्तर का आत्मविश्वास प्रदान करते हैं जो लॉकर में पड़ी हुई गड्डियाँ कदापि नहीं कर सकतीं. लेकिन भक्कु का दुर्भाग्य रहा कि यह आत्मविश्वास आत्मसंतुष्टि में परिवर्तित न हो सका. सिक्कों के जेब से हथेली पर पहुँचते ही दुकानदारों ने दे दी गयी चाय, कोल्डड्रिंक तथा सिग्रेट वापस मांग ली.

ऐसे में झेंप मिटाने के लिए भक्कु यदा कदा अपना गुलाबी पत्ता लहरा देता था, कि देखो भैया पैसे हैं, इसलिए हमका दबाओ मत, पर नतीजा शून्य ही रहल. का है कि टस्कर के दांतों की बस तस्करी संभव हौ, उ का दिखा कर पंसारी से दाल- बात न खरीद सकल. खोंस लीजिये अपना बड़ा पत्ता गोल करके अपने छिद्र में महाराज, तनिक चलनिधि की अवधारणा समझिये और ‘बाज़ार की स्वीकार्यता ही सर्वोपरि’ है, इतना भर जानिए.

वैसे दु हजारी कभी किसी गरीब के किसी काम नहीं आया. यह भारी- भरकम पत्ता सड़क पर क्रय- विक्रय के लिए छापा ही नहीं गया था. उसे चलना नहीं भरे जाना था तीजोरियों में, रहना था गड्डियों में बंधकर, सो भरा ही रहा. पतली- पतली गड्डियाँ, खासी मोटी रकम. दुहज़ारी ने अपना प्रयोजन सिद्ध कर चुका है. भारी सफल सेवा के उपरांत उनकी निवृति हो रही है. सड़क पर सरकार समर्थित रहते नहीं चले, तो अब जाते- जाते तो उन्हें कौन ही लेगा?

पर सरकारी टक्सालोँ ने दस के सिक्के क्यों गढ़े, और पब्लिक ने इन्हें हमेशा तिरछी निगाहों से ही क्यों देखा, यह बता पाना मुश्किल है. जबकि समान्य ज्ञान कहता है कि दस के सिक्कों को बाज़ार का राजा होना चाहिए था, और उसकी लोकप्रियता से संकेत लेकर बीस के सिक्के भी अंकित किये जाने चाहिए थे. पर अब हरामी जनता की कोई क्या कहे?

कुछ जानकार इस पेंच को समझाने हेतु मुहम्मद बिन तुगलक के ताम्रापणों का उदाहरण देते हैं. लेकिन सबको पता है कि आज के दसिये भारत सरकार द्वारा समर्थित हैं और घरेलू टकसालों में नहीं ढाले जाते. वैसे भी आज के ज़माने में कौन संकेत मुद्रा को नहीं समझता, या सरकार द्वारा धारक को कीमत अदा किये जाने के वचन पर संदेह करता है? मामला तकनीकी न होकर, जनमत का है. पर जनता क्यों इन्हें निगलने के बजाए उगल देती है, इसका कोई उत्तर किसी के पास नहीं है.

भक्कु के बताने पर मैंने भी पान वाले, सब्ज़ीमंडी, चाय एवं कोल्ड ड्रिंक की दुकान पर दस, पांच, दो और एक के सिक्के चलाने के प्रयास किए. दस और एक को छूने को कोई छोटा व्यापारी राज़ी नहीं है, दो बहुतसों ने ले लिए और पांच के सिक्के तो अधिकांश ने स्वीकारे. इस लोक व्यवहार का कोई स्पष्टीकरण नहीं है. बस ऐसा ही है.इसे मानना ही पड़ेगा, अन्य कोई चारा नहीं है.

अंत में, पुरातात्विक खुदाइयों के इस युग में मैं तीस हजारी इलाके की भी खुदाई की मांग करता हूँ. मेरा मानना है कि हमें यहाँ पर गड़े हुए पंद्रह दुहज़ारी, या तीन हजार दसिये अथवा एक तीस हजारी सिक्का या नोट अवश्य मिलेंगे. के के मोहम्मद को ये काम सौंपा जा सकता है. वे ऐसे कार्य दक्षता से संभाल सकते हैं. उस मूर्ख पत्रकार की चिप थ्योरी और उसके बाद के मीम मसाले पर मैं नहीं जाऊंगा, लेकिन मज़ा बहुत आयेगा ये जानने में कि कुल प्रकाशित नोटों से कितने अधिक दुहज़ारी लौट कर आते हैं. बाकी सब मामला अब ठंडा हौ और छौंकन लगी क कोनू चांसबा नहीं लगत. कौन आपके सिक्के लौटा रहा है और कौन आपकी मुद्रा के साथ अठखेलियाँ कर रहा है, इतना स्मरण रखें.

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