
लल्लनटॉप द्विवेदी और व्योमेश शुक्ल के मध्य हुए अस्सी मिनट के एक वार्तालाप को श्रवण कर मेरे अन्तर्मन का बनारसी अस्सी घाट की ऐसी एक साँझ में जा टिका जब वहाँ से कुछ ही आगे ध्रुपद मेले का आयोजन हो रहा है , और ऐसा प्रतीत होता है मानो रुद्र वीणा से निकलती तरंगें गंगा में भी लहरें उत्पन्न कर रही हों । मैं और मेरे छिछोरे मित्र इस रमणीक स्थल पर केवल इसलिए पहुंचे हैं क्यूंकी अनेकानेक विदेशी अप्सराएं यहाँ शास्त्रीय संगीत के आनंद सरोवर में गोते लगाने आई हैं । कृपया मुझे यह बतलाकर कि मेले का आयोजन तुलसी घाट पर होता है, अस्सी पर नहीं, अपनी ही दृष्टि से च्युत न हों । बीएचयू से पहुँचने वाले हमारे जैसे संगीत एवं सौन्दर्य प्रेमी भला अस्सी पर ही न वाहन पार्क करेंगे ? तुलसी घाट तक पैदल चलते-चलते मीठा पत्ता मुंह में दबाया, सीढ़ियों पर पड़े-पसरे साधुओं से चिलम मांगकर कुछ कश खींचे और आते-जातों को देखकर ऊचे स्वर में ‘जय गंगा मैया’ का सार्वजनिक अभिवादन किया । प्रत्युत्तर में बहुत से हस्त नभ की ओर उठे और सम्पूर्ण घाट हर-हर महादेव से गुंजायमान हो गया । यह साक्षात्कार चल रहा था, या फिर कोई परिचर्चा ? द्विवेदिया आज के युग का पहुंचा हुआ बकलोल है, यह तो सर्वविदित है, पर सभ्य, सौम्य, मृदुभाषी लंबोदर व्योमेश शुक्ल के साथ मिलकर इसने ऐसी जुगलबंदी और जुमलागिरी मचाई है कि मैं संज्ञा शून्य हो कर सुनता ही रह गया ।
इंटरव्यू के प्रारम्भिक दस मिनट भी नहीं देखे होंगे तभी व्योमेश शुक्ल की पुस्तक ‘आग और पानी’ को पढ़कर उसकी समीक्षा करने का संकल्प कर लिया था । परंतु साक्षात्कारपर्यंत विचारों और स्मृतियों ने ऐसा प्रचंड वेग धारण किया कि लगा कि पठन-समीक्षा इत्यादि जब होंगे तब होंगे, पहले तो इस बैठकी पर ही अपने विचार प्रकट किए जाएँ । हर नगर की अपनी एक धार होती है, अपनी एक चाल होती है । बनारस न बंबई हो सकता है न बग़दाद । यह भी सच है कि आधुनिक भारत के किसी भी नगर के नए निगम क्षेत्र में, जिसमे कि टाउनशिप, कॉलोनियाँ, सरकारी दफ्तर, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, माल, गार्डन आदि हों, आपको छोड़ दिया जाए तो पहचान नहीं पाइएगा कि आप अहमदाबाद में है या इंदौर में- देश में नगरीय आधारभूत संरचना और स्थापत्य एक से लगते हैं । लेकिन लौंगलता खाईए, एकदम बनारस का स्वाद पकड़ लेंगे । कोटा की दाल की कचोरी उज्जैन में नहीं मिलेगी । और बंबई की रातों जैसा मेला भला कहाँ पाएंगे ? ठीक है मेरे नगर में भारतेन्दु हरिश्चंद्र और प्रेमचंद नहीं जिये, चौबीस घंटे शवदाह नहीं होता और जंतर-मंतर भी नहीं है, लेकिन चर्मण्यवती फिर भी बहती है, और थर्मल की चिमनियाँ रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण जैसी खड़ी हैं । प्रश्न केवल इतना सा है कि किसी नगर विशेष पर किताब क्यूँ लिख दी जाये, तो उत्तर इतना सा कि भला क्यूँ न लिख दी जाये ? शुक्ल जी बनारस के संदर्भ में कहते हैं, पर मेरे विचार में यह कथन हर स्थान पर लागू होता है – “वहाँ रहना ही इतिहास बनाना है” । यदि ऐसा है तो फिर किंवदंतियों के संकलन में झिझक कैसी?
सौरभ द्विवेदी साक्षात्कार हेतु ‘आग और पानी’ का बहुत ढंग से अध्ययन करके रचयिता के समक्ष प्रस्तुत हुए । शुक्ल जी की अभिव्यक्ति की एक विशिष्ट शैली है । उन्हें कोई उतावली नहीं है, न कोई हड़बड़ी ही । धीरे-धीरे जमा-जमा कर अपनी बात कहेंगे – कभी हाथी की मदोन्मत्त चाल के लहजे में, कभी हिलोरें लेते नदी के जल की तरह । मगहर के मोरपंखी कबीर की कथा से आरंभ करते हुए भारतेन्दु- दयानंद शास्त्रार्थ और सेठ अमी चंद की बात बताते हुए, किशन महाराज- लच्छु महाराज का साक्षात वर्णन और उस्ताद बिस्मिल्लाह की शहनाई का विश्लेषण करते हुए, चौक से निकलकर मणिकर्णिका में मोक्ष ढूंढते हुए, पुलिस थाने पहुंची कामायनी की पाण्डुलिपि को पुनः घर भिजाते हुए, लमही के प्रेमचंदेश्वर मंदिर और रबरबैंड से ढीले पजामे की मोरी बांधकर साइकल चलाते हुए छन्नुलाल मिश्रा जी के किस्से कहते हुए, राजनारायण का महिमामंडन करते हुए और नागरिक प्रचारिणी सभा, रामलीलाओं और असंरक्षित लिपियों तथा भवनों की व्यथा बताते हुए व्योमेश कहीं भी न विषयांतर करते जान पड़ते हैं, न ही राजनीतिक या सांस्कृतिक बिन्दुओं पर अंतिम निर्णय सुनाते । उनकी प्रत्याशा इतनी भर है कि मरणासन्न परम्पराओं और संस्थाओं को बचाने हेतु समाज कुछ तो पहल करे, चाहे वो गलत दिशा में ही हो । लेखक का आत्मसम्मान उस स्तर का है कि वह श्रोताओं से अपनी पुस्तक खरीदने का आग्रह भी नहीं करता । आप ने रच दी है, संवाद के लिए आमंत्रित किया गया तो चले भी आए – बाकी जनता जनार्दन की श्रद्धा है, मेरा काम पूर्ण हुआ । काशीनाथ सिंह की ‘काशी का अस्सी’ में पंडित जी कुछ यूं गरजते हैं – “देने वाला भगवान, जजमान क्या देगा भोंसड़ी का !”, शुक्ल जी उसी बनारसी दर्शन के अनुयायी लगते है ।
चार वर्ष बनारस में रहा तो बंबई, दिल्ली में न होने का रंज पाले रहे – कॉलेज या डिग्री की चाहत के कारण नहीं, एक्सपोजर की चाह में । इस समयोपरांत छिटक कर संसार में कहीं और गिर जाऊँ, यह आशा भी हृदय में पलती रही । और यह तब है जब इस महान नगर की ऐतिहासिक, दार्शनिक, साहित्यिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और बकचोदी की परंपरा से मैं अनभिज्ञ नहीं था । ऐसा भी नहीं है कि मैंने बनारस जिया नहीं या फिर काशी मेरी धमनियों में नहीं दौड़ता । अस्सी पर भोकाल की चाट मैंने भी खाई है, स्पिकमेके द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम में गिरिजा देवी जी को भी मैंने सुना है । गंगापार जाकर औघड़ों पर चर्चाएं की हैं, सुशील-सरस्वती-मज़दा में अनगिनत पिक्चरें देखी हैं । बीएचयू-लंका की गालियां भी नापीं हैं और काशी चाट भंडार के चक्कर भी लगाए हैं । फिर भी बनारस पर लिखने का साहस मुझ में नहीं है । शिव, त्रिशूल, त्रिलोक – काशी से जुड़ी मानक और उपमाएँ बहुत वृहद हैं, लेखन में उनके साथ न्याय कर पाना असंभव है ।
प्रसाद का मोहल्ला, लमही में प्रेमचंद का घर, छन्नुलाल जी का गायन, काल-भैरव मंदिर, गली-कूँचों में बसे अनेक बड़े-छोटे देवालय, घाटों के पीछे बसे घर, जंतर-मंतर, रैदास और कबीर के पदचिह्न – ये सब कहाँ देख पाया मैं । अनेक बार सारनाथ गया, पर पिकनिक मनाने के उद्देश्य से । ठेके पर बैठकर किसी गुरु के साथ भांग नहीं छानी । गंगा जी में डुबकी लगाई, पर केवल दो ही बार, और न जाने क्यूँ, अनमने से । दीप दिवाली का वैभव एक बार ही देखा, होली के महामूर्ख सम्मेलन में भी एक ही बार जा सका । बनारस ने मुझे बनाया अवश्य, पर अपना रस नहीं दिया । एक गिब्सन गिटार भी दिया, पर संगीत से वंचित रखा । काशी में रहकर मैंने पढ़ा बहुत, पर लिखा बिलकुल नहीं । चार वर्षों तक आनंद उत्सव मनाया, पर संभोग नहीं कर सका । तैरा तो सही, पर तर नहीं सका । बनारस जा कर ही आस्था पुनः जागृत हुई, परंतु भक्त नहीं हो सका । मेरा बनारस चाहने और बताने में बीत गया, न अधिक सीख पाया न ही नगर का हो पाया । यह बात सालती है, क्यूंकी काशी में रमने की महत्वकांक्षा थी, जो अब भी है । महादेव को जमेगा तो बनारस बुला लेंगे – दो वर्ष भी मिल जाएँ तो भरपाई हो जाएगी । उज्जैन से काशी स्थानांतरण में अधिक पेंच नहीं फसने चाहिए, दोनों बाबा धाम ही हैं । रही बात ‘आग और पानी’ की, तो उसकी विस्तृत समीक्षा मैं पठन के बाद प्रस्तुत करूंगा । तब तक आप भी लललनटॉप यूट्यूब चेनल पर किताबवाला में सौरभ द्विवेदी- व्योमेश शुक्ल संवाद का रसास्वादन करें ।
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