आनंद मोहन सिंह के मानवाधिकारों की खातिर…..

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आनंद मोहन की ससुराल से रिहाई को व्यक्तिगत पराजय के रूप में लेने की आवश्यकता नहीं है । उसका छूटना और उसके छूटने पर राजनैतिक सर्वसम्मति बनना हमें सामाजिक संरचना और लोकतन्त्र के स्वास्थ्य के बारे में बहुत कुछ बता रहे हैं, जिस पर चिंतन-मनन होना चाहिए । यह नहीं कि रिहाई से तुनककर तंत्र पर ही केस ठोक दिया जाये ।

वैसे चंदा इकट्ठा करके सामूहिक कानूनी कार्यवाही करने की योजना इतनी पवित्र और मासूम लगती है, कि रसीद कटवा कर सच की सेना में भर्ती हो जाना बहुत सुगम लगता है । जनसहयोग से होने वाला कानूनी आंदोलन क्या लोकतन्त्र की पराकाष्ठा नहीं है? या हम केवल मन समझा रहे हैं, एक-दूसरे को भरमा रहे हैं और चंदाबाजी कर के रस्म-अदायगी कर रहे हैं? कठिन सवाल कौन पूछेगा? काला सच कौन कूकेगा? क्या मैं प्रयास करूँ?

बिहार सरकार द्वारा आनंद मोहन साहब को रिलीफ़ देने के पीछे बहुत से मत हो सकते हैं – सलाखों के पीछे पंद्रह साल कम नहीं होते, कैदी का सद्व्यवहार देखिये, चौदह बरस की सज़ा के बाद उसे भी सुधार का अवसर मिलना चाहिए, कैदी के भी मानवाधिकार हैं इत्यादि । राजनीति नैतिक मूल्यों और दर्शन के आधार पर चलने वाला सरकस नहीं है, बल्कि उसकी आधारशिला रखी हुई है संख्याबल पर । नंबर हैं आपके पास तो हुजूर-ए-आला नंगे भी होंगे, और नाचेंगे भी । नहीं तो चलते बनिए, रास्ता मत रोकिए । संख्या का तर्क चलने दीजिये, कानून के लिए आप न्यायालय पधारिए ।

आनंद मोहन, जो भी सूरमा है, या होता, यदि आज के उत्तर प्रदेश में सेवारत पुलिस अधिकारी की हत्या कर देता तो पुलिस विभाग द्वारा त्वरित कार्यवाही में उसे कुत्ते की तरह मार गिराया गया होता । इस पर तीन बातें कहनी बनती हैं – पहली, कि आनंद मोहन जो भी है, या होता, से क्या मतलब है? वह एक प्राउड राजपूत है, और उसकी रिहाई से पूरे समाज में हर्ष की लहर दौड़ गयी है । ऐसा कहा जा रहा है । कह नहीं पा रहे हैं तो कम से कम ऐसा मान तो रहे ही होंगे, तभी इस हत्यारे की रिहाई संभव कारवाई है । अब तक सर्विंग ऑफिसर को जान से मारने वाले अपराधी की सज़ा पर चौदह वर्ष की समयसीमा से ऊपर मिलने वाली रियायत लागू नहीं होती थी । यहाँ सरविंग ऑफिसर और आम आदमी में भेदभाव पाया गया जिसे बिहार सरकार ने अब दूर कर दिया है । पूरी व्यवस्था हरकत में आई और रोड़ा बन रहे इस अन्यायपूर्ण क्लौज को हटाया गया, ताकि राजा बाबू की सम्मानजनक रिहाई संभव हो सके। नेताओं को अगर यह लगता है कि जातिगत समूहों की कोई भी नीतिपूर्ण अथवा अनैतिक मांग मान लेने से उनके पक्ष में हवा बहने लगेगी, तो एकदम सही लगता है । लोकतन्त्र लेनदेन का बाज़ार है, इस मंडी में आदर्शों से खेलने वालों की जमानत जब्त होकर रहती है ।

दूसरी बात यह है कि आनंद मोहन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नहीं, बिहार सरकार द्वारा रिहा किया गया है । यह सिर्फ एक तथ्यात्मक बिन्दु है । उत्तर प्रदेश में भी होता तो आनंद मोहन घोड़ी पर ही सवार दिखता, मोक्ष रथ पर नहीं । आखिर वह राजपुत्र जो ठहरा । और राजपुत्र उसके बाहर आने पर इतने प्रसन्न हैं कि क्या बताएं ! ऐसा लगता है मानो राजे-रजवाड़ों के दिन वापस आ गए हों ।

और तीसरी बात यह कि उसने एक आईएएस अधिकारी को मारा था, पुलिस अधिकारी को नहीं । एक शंका उठती है कि क्या केवल पुलिस महकमा ही अनटचेबल है, या अन्य विभागों के अफसरों पर भी अगर हमला हो तो सरकार हमलावर की जान की प्यासी हो जाएगी? यहाँ एक सवाल यह भी उठता है कि किसी अपराधी द्वारा अफसर या आम आदमी की हत्या किए जाने में अंतर क्यूँ हो । अमुक नियम बेवजह भेदभाव को बढ़ावा दे रहा था, इसलिए उसे हटाये जाने के विरुद्ध भारतीय अशक्त सेवा संगठन द्वारा न्यायालय का दरवाजा खटखटाना कितना उचित है ?

इस घटनाक्रम से जुड़े कई ऐसे प्रश्न हैं जिन्हें उठाना नितांत आवश्यक है । जैसे क्या वास्तव में राजपूत समाज इस हत्यारे की रिहाई का जश्न मना रहा है? यदि ऐसा है तो इस समाज से आने वाले कितने सेवारत और सेवानिवृत अफसरों ने किसी सामाजिक मंच से इस तथाकथित जश्न के विरोध में आवाज़ उठाई है? और यदि नहीं, तो पाँच सौ रुपए की रसीद कटवाकर क्यूँ किसी दिवंगद को कोर्ट-कचहरी और खबरों में फसाए रखना चाहते हो? मुक्त हो जाने दो उसे अब आपके जातिगत दलदल, आपराधिक समाज और निष्ठुर व्यवस्था से, और आपकी नपुंसक महत्वकांक्षा से ।

एक प्रश्न यह भी बनता है कि इस नियम के हटने की प्रक्रिया में कितने अफसरों का योगदान रहा है, और क्या वे भी चंदा एकत्रीकरण में योगदान दे रहे हैं? चलिये मान लिया कि नेता केवल अपने वोट गिनता है, इसलिए सीएम साहब का कंपलशन तो समझ में आता है । पर क्या किसी भी कर्मचारी ने इस पूरी प्रक्रिया के दौरान अपनी आवाज़ उठाई थी? या सारा सिस्टम माफिया, जाति और राजनेताओं के वेल्फेयर हेतु चुप्पी साधे रहा? आनंद मोहन बरसों जेल में रहा है । क्या अधिकारियों और कर्मचारियों ने उसे कभी जेल के नियमों और टेढ़े-मेढ़े तौर-तारीखों से रूबरू होने दिया? क्या आनंद मोहन ने कभी जेल की चक्की पीसी या रोटी चखी? या इस सरकारी दामाद की आवभगत में ही पंद्रह साल निकलने दिये , यह सोचकर कि फिर किसी दिन चंदा इकट्ठा करके इसकी रिहाई के विरुद्ध केस किया जाएगा ।

रही बात जाति की तो किसी भी अधिकारी का व्हाट्सेप उठा कर चेक कर लीजिये । वह किसी न किसी जातिगति समूह का हिस्सा अवश्य होगा । ब्राह्मण, ठाकुर, मीणा, मुसलमान, कायस्थ, यादव, विश्नोई इत्यादि जातियों के अफसरों के भी अपने ऑनलाइन ग्रूप हैं । ज़ाहिर है इस सब से जातिगत भावना बढ़ती है । समाज में जाति के प्रभाव को स्वीकार करने वाले और उसे पोषित करने वाले अगर जातिवाद के विरुद्ध मोर्चा न खोलें तो ही ठीक रहे । डॉन की रिहाई का जश्न भी इसीलिए है क्यूंकी वह बाहर आकर ‘अपने लोगों’ के लिए कुछ करेगा । जाति की चमक के समक्ष न्याय का प्रकाश बहुत फीका है । अफसर वर्ग और आम आदमी में यहाँ कोई फर्क नहीं है ।

समय सदैव एक सा नहीं रहता । आनंद मोहन की रिहाई कालचक्र को दर्शाती है । बुरे समय में अंदर गया, भाग्य बदला तो बाहर आ रहा है । इस देश में असंख्य बाहुबली जेल तोड़ कर भी फरार हुए हैं । आनंद मोहन तो बाकायदा नियम-परिवर्तन करवा कर बाहर आ रहा है । उसने चौदह वर्ष सज़ा भी काटी है । उसका समाज उसे नायक की तरह पूज रहा है । रुलिङ्ग पार्टी भी उसे रिहा करके फूली नहीं समा रही है। कंविक्टेड अपराधी चुनाव लड़ नहीं पाएगा, वरना इस पूरे प्रपंच का उचित पटाक्षेप यही होता कि आनंद मोहन सिंह चुनाव जीतकर सीएम नहीं तो भी मंत्री तो बन जाता । काश यह नियम भी अब बदल दिया जाये । कोई न कोई अफसर कहीं न कहीं इसे बदलने की कवायद अवश्य कर रहा होगा । 


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