सापेक्ष समय की निष्ठुर निरपेक्षता (कविता)

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आगे खड़े समय को दूरबीन से ताकता हूँ,
दूर कहीं खड़ा दिये-सा टिमतिमाता है,
पीछे छूटा समय मेरी अकर्मण्यता को कोसता है,
मील का पत्थर था, अब उसके चिह्न मिटाने हैं,
आने वाली बेला हाथ बढ़ाकर बुलाती है,
निकल चुकी घड़ी मेरी कलाई नहीं छोड़ती.

वर्तमान के पास समयाभाव है-
कहने को समय है लेकिन पलों का कोष रिक्त,
सोचते- सोचते बीत भी जाता है,
मैं चाह कर भी वर्तमान में टिक नहीं पाता,
कहते हैं समय बढ़ता जाता है,
मुझे तो लगता है वह घटता है.

हर भोर बयार संग भविष्य में उड़ जाता हूँ,
स्मृतियों पर फिसल कर भूत में आ गिरता हूँ,
भविष्य तो बादल है, बरसेगा जब बरसेगा!
भूत के दलदल में धँसा चला जाता हूँ,
उपमाएं बहुत सी संभव हैं-
वर्तमान क्या है? केवल रतिक्षण-
चरमोत्कर्ष, क्षणभंगुर, छलावा!
आनेवाले कल का उत्साह से भय अधिक है,
बीत चुके पल का है घोर पछतावा.

भूत को वैसे नहीं लिखूँगा जैसा घटा था,
समान्य को भव्य बताने का दायित्व है मुझपर,
किसी ने जस का तस लिख भी दिया
तो अवसर मिलने पर उसे बदलकर रहूँगा,
भविष्य-निर्माण की चिंता नहीं है मुझे,
स्वप्नों के क्रय- विक्रय का उद्योग चलाता हूँ,
भूत हो जाने पर उसपर विशेषण चढ़ा दूंगा,
जली हुई लंका में कोई विभीषण बैठा दूंगा,
तथ्य, दृष्टिकोण, कथानात्मक रूपांतरित हो जायेंगे,
स्तुतियाँ, यशोगान गाने वाले सहस्त्रों मिल जायेंगे,
स्वर्णिम काल था मेरे जीवन का, सुनहरा युग कहो,
आज की शब्दावली में अमृत काल कहलवा दूंगा.




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