
हर समय ही ‘संक्रमण काल’ चल रहा होता है,
हर समय परिवर्तन की बयार बह रही होती है,
यह घड़ी-भर निकल जाये,
अबकी बार स्वास्थ्य ठीक हो जाए,
अबके चुनाव जैसे-तैसे निपट जाएँ,
यह परीक्षा पूर्ण हो जाये,
स्थानांतरण हो सकता है, अब हो जाने दिया जाये,
ऋतु तो बदल जाने दो,
बाज़ार गिरा हुआ है, थोड़ा चढ़ जाये,
बिसात बिछी है, गोटियाँ सजी हैं,
समीकरण कितने बुरे फसे हैं,
ये विकट परिस्थितियाँ कैसे भी संभल जाएँ,
समय बहुत टेढ़ा है, संक्रमण काल चल रहा है,
ईश्वर करे, यह कठिन बेला कट जाये ।
यह सब थोथे बहाने हैं,
खेल दरअसल टालमटोल का है,
कुरुक्षेत्र में उतरना है ही नहीं,
पर झेंप जो मिटानी है,
अकर्मण्यता का तमगा न मिल जाये,
इसलिए आओ, संक्रमण काल का सिक्का उछाला जाये,
वर्तमान को अनिश्चितता, कठिनाई और परिवर्तन का पर्याय बतलाकर,
अकर्म, जड़ता, तटस्थता को अपरिहार्य बताकर,
कर्म फल से पिंड छुड़ाया जाये !
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