
कब किसी कवि ने संकोच भला किया है,
कहाँ कोई कलम नियमों में बंध पायी है,
क्या पृष्ठ कभी स्वयं के रंगे जाने पर खीजा है,
कौन सा विचार कौंधने से पहले झिझका है,
श्रोताओं ने भी नहीं कभी उदासीनता दर्शायी है,
फिर क्यों बढ़ रही जीवन और कविता में खाई है.
गद्य ने चाहे कर दिया हो समर्पण,
पत्रकारों ने तोड़ डाले हों सत्यनिष्ठा के प्रण,
हास्य हो भयभीत चाहे खिसिया रहा हो,
व्यंग्य सशंकित होकर दांत किटकिटा रहा हो,
शृंगार बंध पारावार में लगने लगा हो रंभाने,
चेताने वाले को ही संसार देने लगा हो ताने,
कविता पर लेकिन कवि का भी वश है नहीं चला,
तुक बैठा तो तुक सही, नहीं तो मनचला,
प्रेम, घृणा, उद्गार, ललकार- जो भी उमड़े,
सतरंगी वारिद बन मेरे भाव इधर- उधर घुमड़े,
दो स्वरचित पंक्तियाँ भी तीक्ष्ण आघात हैं,
कविता ही क्रांति है, नवयुग की शुरुआत है.
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