
भला हो यूट्यूब के एआई का । कहीं से अतुल बेड़ाड़े का एक विडियो सुझाव भेज दिया । बैठे-बैठे मैं उनतीस साल पहले ट्रांसपोर्ट हो गया । मौका था औस्ट्राल-एशिया कप फाइनल का – भारत बनाम पाकिस्तान, वेन्यू शारजाह, साल चौरानबे । दिन यकीनन शुक्रवार रहा होगा, महीना अप्रेल का था, यानि हमारी फाइनल परीक्षाएँ समाप्त हो चुकी थीं । शुक्रवार, जुम्मे का दिन, इस दिन इस्लामी लड़ाके हम काफिरों पर भारी पड़ते थे । एक मनोवैज्ञानिक दबाव-सा हमारी टीम पर तो रहता ही था, श्रोता भी हार तय मानकर चलते थे । वो ज़माना कुछ ऐसा ही था, तीन लड़ाइयाँ जीतने, इकरानवें से लिबरलाइज़ होने और बानवे के बाबरी विध्वंस के बावजूद आम भारतीय थोड़ा दब कर चलता था ।
उस दिन, पाकिस्तान ने पहले खेलते हुए ढाई सौ दौड़ें बनायीं । भारत के सामने पचास ओवेरों में दौ सौ इक्कावन दौड़ें हासिल करने का लक्ष्य था , जो उस युग के हिसाब से काफी दुरूह था । हालांकि समय बदल रहा था, और किसी तरह से दौड़गति बढ़ाने के जतन सभी टीमें कर रहीं थीं, हालांकि जयसूर्या और कालुविथर्णा का समय अभी दूर था । दो महीने पहले ही न्यूज़िलेंड दौरे से सचिन तेंदुलकर एक दिवसीय मैचों में पारी प्रारम्भ करने लगे थे । यह परीक्षण एक हद तक सफल साबित हुआ था । अजय जडेजा भी कुछ मैचों में ओपनिंग करते हुए ठीक-ठाक खेल गए थे । सेमी-फाइनल में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ उन्होने सत्तासी दौड़ों की आतिशी पारी खेली थीं । सिद्धू, अजहर और कांबली मध्य-क्रम में जमे हुए थे । कांबली ने सेमी-फाइनल में शेन वार्न के एक अवर में बाईस रन सूँत डाले थे । छठे नंबर पर आना था छक्कामर विशेषज्ञ अतुल बेड़ाड़े- बड़ौदा के खब्बू बल्लेबाज, जिन्हें छक्के मारने के लिए ही टीम में शामिल किया गया था । फिर मोंगिया, श्रीनाथ और कुंबले को आना था । तो कुलमिलाकर जब भोजनावकाश के दौरान पाकिस्तानी खिलाड़ी बस में बैठ कर नमाज़ पढ़ने को रवाना हुए, तब उस अशोक पान भंडार पर, जहां मैं वह मैच देख रहा था, क्रिकेट पागलों की उम्मीद कुलाचे मार रही थी । “हो तो सकता है, सचिन पर डिपेंड करेगा” । “सचिन के साथ जडेजा, कांबली, सिद्धू को भी योगदान देना होगा” । “कभी तो अजहर भी मारेगा” ।
खैर, एक घंटे के अंतराल से बाद भारत का जवाब शुरू हुआ । जडेजा जल्दी में निपट लिया । वसीम अकरम की गोलंदाजी अलग स्तर की थी । पहले अवर में ही राउंड द विकट भाग कर आते हुए वसीम की एक पटकी हुई तेज़ गेंद पर जडेजा फस गया और मिड-विकिट पर बासित अली को एक आसान सा कैच दे बैठा । शानदार फॉर्म में चल रहे सचिन ने थोड़ा समय लिया और फिर अपने रंग दिखने शुरू किए । जम कर खेलते हुए उसने डीप एक्सट्रा कवर, लॉन्ग ऑफ, लॉन्ग ऑन और डीप स्क्वायर लेग पर चार शानदार चौके जड़ डाले । उस समय मैं बारह वर्ष का था, कक्षा छ बस पूरी ही हुई थी । हर गेंद जो सचिन खेलता था उसके पहले एक बार ॐ नमः शिवाय जप लिया करता था । “जब ये लोग मस्जिद जाते हैं, तो हमारे खिलाड़ियों को भी मंदिर जाना चाहिए” । “शारजाह में मंदिर है भी”? (अब तो है, उस समय का पता नहीं) “अजहर, सिद्धू तब क्या करेंगे जब बाकी टीम मंदिर जाएगी?” पान की दुकान पर खड़े होकर मैच देखने वाले अधेड़ों-बुड्ढों-जवानों, सभी का यही हाल था । हमारी आस्था का केंद्र, हमारी उम्मीदों का खेवनहार क्या पता आज नाव पार लगा ही दे । मूड में तो लग रहा है । गेंद बल्ले के मिडिल में आ रही है, एक सटोरिया बोला । किसी दिन तो अल्लाह मियां अपने अजहर चिचा पर भी मेहरबान होंगे, शोहदे ऐसा कहने लगे थे । दुकान पर जमावड़ा बढ़ गया था, दर्शक विमल-श्री ज्यादा फांक रहे थे, सट्टा और शर्तें भी बढ़ रहीं थीं । क्या पता, क्या पता….
लेकिन तभी खेल की धारा के विपरीत सचिन आउट हो गया । अताउररहमान की एक वाइड फुलटॉस पर नियंत्रण खो बैठा और पॉइंट पर अमीर सोहेल ने आसान सा कैच ले लिया । फाइनल का प्रेशर काम कर गया? “ओह नो, फुलटॉस पर कौन आउट होता है” । “जाल में फस गया, पाकिस्तानी बहुत चालाक हैं, बच्चा सीधा है यार” । “यार ये हमेशा ऐसे ही करता है, इतनी जल्दी में क्यूँ रहता है” । “जुम्मा है भाई, ये तो होना ही था” । “मैच खत्म, चलो काम करो” । “चलो यार, बंद करो, सरदार और चाचा से क्या ही होगा” । बारहवें अवर में जब सचिन आउट हुआ तब भारत साठ तक पहुँच चुका था, और मुक़ाबले में था । पर फिर देखते ही देखते सिद्धू और अजहर सस्ते में आउट हो गए । भारत चार विकट पर त्रांसी, बाकी क्या था बाकी? अब तक दुकान से दर्शक नदारद हो चुके थे । पान वाले अशोक भैया ने मुझको पुचकार कर चुटकी थमाई और बोले अब क्या रहा यार, घर जाओ, खेलो-कूदो, देखने से कुछ नहीं होगा । मैं भी प्रतिदिन राजस्थान पत्रिका का खेल पृष्ठ चाटने वाला पगला था । “अतुल बेड़ाड़े है अभी, देख लेना आज वो मारेगा”, मैं फूटा । “हैं, ये कौन है लौंडा?” । बाद में समझ आया अशोक ने शायद लवड़ा बोला होगा । “है बड़ौदा का बहुत फोड़ू बल्लेबाज, छक्कों में डील करता है” । बेड़ाड़े का यह तीसरा मैच था, पहले दो में उसने कुल जमा सात दौड़ें जोड़ी थीं । अशोक ने मुंह में पान दबाया, एक सिगरेट सुलगाई, छोटू-से टीवी की आवाज़ म्यूट की और मेरी बात को आया-गया कर दिया । मुंह से तो नहीं बोला, लेकिन आँखों से मुझे चूतिया होने का एहसास कराया । प्रसारण चलता रहा, मैं भी अंगद की तरह जमा रहा ।
कांबली एकदम टेस्ट मोड में आ गया था । छक्का-विशेषज्ञ भी शांत था । सिंगल-डबल वाला खिलाड़ी था नहीं, स्कोरबोर्ड रेंग रहा था । अगले नौ अवरों में केवल बाईस दौड़ें आईं । “अमा, ऐसा खेलने से बेहतर है आउट हो जाओ” । “वन डे फाइनल है यार, एकदम बोर कर दिया” । “एकदम फिसड्डी निकले हमारे जवान” । हताशा से भरे इस माहौल में यकायक सफ़ेद हेलमेट पहने बेड़ाड़े को सलीम मालिक की गेंद पर डग भरकर आगे बढ़ता पाया । और वो लगा एक ऊंचा, बहुत ऊंचा सिक्सर, लॉन्ग ऑफ के ऊपर से । अगले अवर में बेड़ाड़े फिर आगे कूदा और अकरम रज़ा को लॉन्ग ऑफ के ऊपर से एक गगनचुंबी छक्का मार दिया । अगले अवर में खड़े-खड़े केवल फुटवर्क के सहारे बेड़ाड़े ने सलीम मालिक को लॉन्ग ऑफ के ऊपर बाउंड्री पार पहुंचा दिया । खलबली मच गयी । तीन अवर, तीन छक्के ! सारे सपने सच हो जाएंगे क्या, हमें यह डर सताने लगा । अशोक पांवले ने मुझे चेरी और गुलकंद का मिक्स बना कर पेश किया । भीड़ दोबारा जुटने लगी । “बेड़ाड़े मार रहा है” । “छक्के पे छक्के पड़ रहे हैं” । उम्मीद दोबारा जाग गयी । अकरम रज़ा के अगले ओवर में बेड़ाड़े डीप कवर पर लपके जाने से बचा लेकिन गेंद चौका पार कर गयी । चौतीसवें अवर और डेढ़ सौ दौड़ें । कांबली समझदारी से दौड़ें चुरा रहा था । पैतीसवें में बेड़ाड़े ने अकरम राजा को आगे बढ़ कर फिर लॉन्ग ऑन पर से छ मार दिया । भारत एक सौ बासठ पर आ बैठा था । फतह के लिए बनानी थीं नब्बे गेंदों में अठठासी दौड़ें, छ विकेट शेष थे अभी । सेट बल्लेबाज क्रीज़ पर थे, छक्कामार बेड़ाड़े और भारत का भविष्य विनोद गणपत कांबली । दुकान पर जमा ग्राहकों और दर्शकों को लेकिन पता था कि उस दिन शुक्रवार है और जुम्मे के रोज़ पाकिस्तान शरजाह में भारत से हार नहीं सकता । मैच का मज़ा अपनी जगह है, लेकिन यथार्थ की अपनी सत्ता है । तक की हिन्दुस्तानी पब्लिक आश्वस्त होकर मैच देखना जानती थी । कड़वी हार पचाने में आसानी होती थी ।
और फिर जिसका डर था वही हुआ । छत्तीस्वें अवर में एक सौ तिरसठ के स्कोर पर चालाक अमीर सोहेल की एक फुलटॉस पर बेड़ाड़े डीप एक्स्ट्रा कवर फील्डर को कैच दे बैठा । मैच ख़त्म, घोश्त हज़्म । उस दिन चार छक्के और एक चौके की सहायता से बेड़ाड़े ने पैतालीस गेंदों में चव्वालीस दौड़ें बनायीं । छक्का विशेषज्ञ ने इसके बाद दस एकदिवसीय और खेले, लेकिन अपने पूरे कैरियर में इन चार के अलावा केवल एक छक्का और जड़ सका । भारत इसके बाद किसी तरह गिरपड़ कर दो सौ ग्यारह तक पहुंचा और उनतालीस दौड़ों से हार गया । बेड़ाड़े का कैरियर कभी परवान नहीं चढ़ सका । उनके ज़िक्र से मुझे तीन और खिलाड़ी याद आ गए – फिलो वालेस, रिकार्डो पॉवेल और युसुफ पठान । पर उनकी चर्चा और अपने संस्मरणों का ज़िक्र किसी और मौके पर करूंगा, आज के लिए इतना ही ।
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Kam se kam vo video to share kar dete
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