
सैफ अली बैठा पेड़ पे,
करके पटौदी चौड़े,
नीचे खड़ा प्रभास बोला,
उतर भांड, हँसोड़े!
कल विजया दशमी मनाया जाएगा । पूरी दुनिया में रामलीला मंचन चल रहा है । पर ऐसे में एक रावण ऐसा भी बन गया है जिसके माथे से त्रिपुन्ड गायब है । गले में माला नहीं है, मूछें भी मुंडी हुई हैं । शिवनाम से कोसों दूर, ऐसा लग रहा है जैसे अभी ओला ऊबर बुलाने लगेगा । चेहरे पर तेज नहीं है, वहशीपन का भाव है । सिंह नहीं, भेड़िया दिखता है । शिव तांडव स्तोत्रम का रचयिता ऐसा मुगलिया तो न दिखता रहा होगा । हरे-हरे कपड़े, विक्षिप्त भंगिमाएँ । लाल-पीला-भगवा रंगों का अंशमात्र तक नहीं । इस जन्तु को जन्म देने वाले उर्दूवुड का आभार !
फिल्म तानाजी में आँखों में सूरमा लगाकर सैफ अली राठौड़-राजपूत बन गया था । अब आदिपुरुष में तुर्कोमन ब्राह्मण बना है । बिना मूछों के, लंबी मुल्ला दाढ़ी वाला महापंडित, शिवभक्त दशानन । यह अलग बात है कि रावण सारस्वत था । दस सिर दे दिये जाएँ तो सैफ अली एक पर खालसा पगड़ी, दूसरे पर यहूदी टोपी, तीसरा सफाचट, चौथे पर पोप वाली केप, पांचवे के गले में नीला शाल, छठे में अश्वेत, सातवें में महिला, आठवें में ट्रांसवेसटाइट, नवें में नेहरू और दसवें में जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर – यह सब वेश धारण कर लेगा । शिव बारात में शामिल नर-मुंड-पिशाच-ओघड़ भी दरिंदे नहीं दीखते, अल्हड़-मस्त, भोले बाबा के भक्त वीभत्स कैसे दिखेंगे ? खैर सैफ अली भांड है, स्वांग तो भरेगा । अगली फिल्म में भगवाधारी बाबर या रुद्राक्ष की माला पहने तेमूर लंगड़ा बन सकता है । यहाँ मैं सैफ अली को नहीं कोस रहा हूँ । डाइरेक्टर ॐ राऊत की बुद्धि घास चरने गयी है । यही राऊत था जिसने तानाजी में उदयभान राठोड़ की आँखों में सूरमा लगवाया था । पूरा घनचक्कर लगता है ।
आदिपुरुष में रावण चमगादड़ की सवारी कर रहा है, राम बने प्रभास के चेहरे पर शून्यता विद्यमान है । आश्चर्य की बात है सिक्स पेक्स भी जड़-से दिखाई देते हैं । राम, लक्ष्मण और हनुमान चमड़े के सेंडल पहने घूम रहे हैं । हनुमान ने चमड़े के ही गेलीस भी डाले हैं । मारुतिनंदन के केश भैंसनुमा बूफ़ाव्न्त शैली में गूँथे गए हैं । कृति सेनोन सीता बनकर बैंगनी साड़ियाँ लहरा रही है । माहौल धार्मिक न बन जाये इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है । एक फिल्म टीज़र इतना अझेल कैसे हो सकता है । बेचारे आजकल के डाइरेक्टर गेम ऑफ थ्रोन्स से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं । थोड़ी कोशिश कर भी लें तो मैड मैक्स और लॉर्ड ऑफ द रिंग्स तक ही सोच पाते हैं । रामायण प्रेमगीत था, भक्ति रस से सरोबार । महाभारत धर्म पर आख्यान था । थोड़ी बहुत छेड़छाड़ महाभारत के युद्ध प्रसंग में फिर भी हो सकती है । परंतु रामायण की सर्वनाशक अवधारणा की कोई गुंजाइश नहीं है ।
सैफ अली संविधान में निहित अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का पूरा आनंद ले रहा है । उसे राठौड़ बनना है, वह रावण भी बनेगा पर औलादों के नाम विदेशी आक्रांताओं के नाम पर रखेगा । उसने स्वयं ही बताया कि अपने लड़कों के नाम वह राम और हनुमान पर तो नहीं रख सकता । कोई बात नहीं, यह उसका मौलिक अधिकार है । पर हमें यह अधिकार कहाँ मिले हुए हैं ? हम सैफ अली के मजहब से जुड़े किस्से-कहानियों का ज़िक्र भी कर दें तो सारी व्यवस्था- राजनैतिक दल, पुलिस, न्यायपालिका इत्यादि हमारी जिह्वा काटने को तत्पर हो जाती है । मजहबियों से तो बिना कुछ भी किए ही खतरा है ।
वैसे सैफ, तेरा मखौल उड़ाना मुझे खलता नहीं यदि एक, हमें भी हास-परिहास का अधिकार मिला होता, और दो, तू उनका रूप-स्वरूप भी पर्दे पर दर्शा पाता जिनका का ऐसा करना मजहब के हिसाब से निषेध है । यही तो विडम्बना है । हम किताबों में लिखी बातें भी बोल दें तो ‘सर तन से जुदा’ हो जाने का खतरा । दूसरी तरफ बाबासाहेब के संविधान का रोना रोकर तुम लंकाधिपति को अब्दाली-बाबर-तैमूर बना दो । राम और रावण से उर्दू में बयान दिलवा दो ।
कोई कह सकता है कि रावण तो विलेन है, फिर क्या अंतर पड़ता है । तो भाई, सनातन में जन्म-जन्मांतर तक किसी से शत्रुता नहीं पाली जाती । मृत्युशैय्या पर पड़ा रावण कौशल्यानन्दन और सुमित्रानंदन का गुरु हो गया था । उसे कार्डबोर्ड विलेन दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं है । रामानन्द सागर के अरुण त्रिवेदी जी को याद कीजिये । कितने अधिकार और गरिमा से लंकानरेश का चरित्र निभाया था । वोक प्रजाति आरोप लगा सकती है कि रावण को लेकर सजग हुए क्यूँकि वह ब्राह्मण था । यह भी एक सीख है – ब्राह्मण था, पर पुजाया नहीं गया । कर्म ठीक नहीं किए तो उसका संघार करने के लिए स्वयं प्रभु ने अवतार लिया । जाति कवच नहीं होती । मनुष्य का मूल्यांकन उसके कर्म पर आधारित रहा है , बाकी असत्य और विद्वेष तो वामपंथियों ने जम कर फैलाया है ।
यह भी कहा जा सकता है कि हिन्दू कलाकार भी तो देवी-देवताओं-ऋषि-मुनियों के चरित्र निभाते आ रहे हैं, फिर अहिन्दु ऐसा करे तो क्या समस्या है ? सलीम घोष से नहीं थी । भारत एक खोज में राम और कृष्ण दोनों पात्र निभाए और सम्मान भी पाया । लेकिन यह भी मानना होगा कि हिन्दू पूर्वजों में हिन्दू की तो आस्था निहित है – हम उनके अच्छे बुरे, पाप और पुण्य को स्वीकार करते हैं । लेकिन जिस व्यक्ति या समाज का नारा ही हो “देयर इस नो गॉड बट…..” , जो हमारे पुरखों और देवी-देवताओं के अस्तित्व को ही नकार रहा हो, जिसकी उनके चरित्र में श्रद्धा ही न हो, और फिर उसके निरूपण में उनके प्रति निंदा या हास्य का भाव भी हो, तो ऐसे अनर्थ पर अंगुलियाँ उठना स्वाभाविक है । धार्मिक पात्रों को निभाने के उनके प्रति श्रद्धा का भाव होना आवश्यक है । यह व्यापार-भर नहीं है, कला और संवेदनाओं का भी प्रश्न है । रावण का मूल तत्त्व ही शिवभक्ति था । मजहब के नाम पर शिवलिंगों को भंग करने वाले या उसे फव्वारा बताकर अपमानित करने वाले समाज के नुमाइंदे से रावण को समझ पाने की आशा रखना डाइरेक्टर की मूर्खता है । जब इस तरह की मूर्खताएं दिन-प्रतिदिन घटने लगें तो षड्यंत्र की बू आने लगती है । कहीं ऐसा तो नहीं कि हिन्दू धर्म, संस्कृति और रीतियों से भगवा, चिह्न एवं आस्था मिटाकर उन्हें अब्राहमी साँचे में डालने का प्रयत्न किया जा रहो ! सजग तो रहना होगा, संस्कृति-विनाश का मार्ग यही है ।
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बहुत ही उत्तम प्रकार का कटाक्ष किया है।
अप्रतिम
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धन्यवाद
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