
तटीय क्षेत्र, अनंत विस्तार,
सागर और वसुंधरा को पृथक करती
पेड़ों की प्राचीर ।
न अभी-अभी स्टेशन से छूटी है,
न ही गंतव्य में प्रवेश कर रही है,
यात्रा के मध्यरत
दृष्टिगोचर हुई यह छुकछुक गाड़ी –
क्या रुकी है, या फिर है गतिशील?
चित्र यह नहीं कह पाएगा,
न ही सुना सकेगा किसी प्रकार की ध्वनि –
भारीभरकम डिब्बों के हवा को काटने की,
पटरियों की थरथराहट,
भूमि का प्रकंपन ।
मैं केवल अनुमान लगा सकता हूँ,
चित्र की सीमाओं पर खेद जता सकता हूँ,
अपनी कल्पना से संसार बना सकता हूँ,
वैसे ड्रोन की ऊंचाई से यह भी जान पाना मुश्किल है
कि सवारियाँ बैठी भी हैं भीतर,
या व्यर्थ ही भागादौड़ी कर रही है,
मेरी प्यारी लौहपथगामिनी ?
यह प्रश्न अभी से पहले कौंधा नहीं,
इसलिए कभी पूछा नहीं,
कि एक भी टिकट न कटे,
तब भी क्या उद्गम से निकलेगी रेलगाड़ी ?
सारिणी के अधीन है, या आरोहियों पर आश्रित?
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