
अब तक ये चार शेर गांधीवादी थे । थोड़े दबे-सहमे हुए, झुके-झुके से- शीतल और सौम्य । गुर्राना तो दूर, जनता की मांग पर कभी-कभी मिमिया भी देते थे । ऐसा नहीं है कि उनकी आक्रामकता पूर्णतया मिट गयी थी- घुसलखाने और शयन कक्ष में उनके ब्रह्मचर्य प्रयोग अनवरत चला करते थे । पर जनता और उनके चरवाहों को लगने लगा था कि ये दरअसल बकरी हैं, जिन्होने कुर्बानी के डर से बिल्ली का रूप धारण कर लिया है ।
वैसे वह समय भी कुछ ऐसा ही था । जब तुष्टीकरण के नाम पर भारतमाता की ही कुर्बानी दे दी गयी, धर्म के नाम पर विभाजन तक स्वीकार कर लिया गया, तब इन शेरों की क्या औकात थी कि दहाड़ देते और बचे रह जाते । शेरों ने आपदधर्म का सहारा लिया । दाँत छुपा लिए, पुंछ गिरा ली । इस सरेंडर का लाभ भी मिला । शेर को गांधी के चहेते बंदरों और बकरी के ऊपर तरजीह देकर राष्ट्रीय पशु बनाया गया । यही नहीं चरखे की उपेक्षा करके सिंह समूह को राष्ट्रीय चिह्न में भी स्थान प्राप्त हुआ ।
लेकिन अपनी प्रकृति के विपरीत जाकर घास चरना अंततः शेरों के लिए महंगा सौदा साबित हुआ । हंसिया-हथौड़ेधारी कई पंजों ने इन शेरों को हंटरों से सूँता, इनपर सवारियाँ कीं, यहाँ तक कि अपने सर्कसों में इनकी नुमाइशें भी लगवाईं । बाघ ने सन बहत्तर में सिंहों से राष्ट्रीय पशु का दर्जा भी छीन लिया । बेचारे शेर सरकारी कागजों और गीर अभ्यारण्य में ही बचे रह गए ।
खैर समय एक सा नहीं रहता । हथौड़े उठाने वाले पंजों की शक्ति अब क्षीण पड़ चुकी है । हंसियों की धार भी अब कुंद हो चुकी है । एक समय भरत ने एक सिंह के दंत गिनने की कवायद की थी । उसी भरत के भारत के सिंहों ने अब खुल कर अपने दंत प्रदर्शित करने का निर्णय लिया है । मानों चुनौती दे रहे हों कि वे अब तक झड़े नहीं हैं, और हो कोई दुस्साहसी बालक जो उनके मुख में हाथ डालकर उन्हें गिन सके, तो आगे आए ।
एक बालक तो है पर वह विदेश गया हुआ है । वह यूंही आता-जाता रहता है । सहसत्रों अन्य युवा नेट्फ़्लिक्स और अमेज़ों प्राइम पर न्योछावर हैं । एक बहुत बड़ी तादाद इंस्टा रील बनाने में व्यस्त है । भतेरे प्रतियोगी परीक्षाओं के बोझ तले दबे हुए हैं । आधी पीढ़ी को तो रोज़ी-रोटी कमाने के लिए दिनभर कंप्यूटर के सामने बैठना पड़ता है । बाकी बचे-खुचे अग्निवीर भर्ती की तैयारी में लगे हुए हैं । ऐसे में शेरों के दाँत गिने कौन ? बाघ के दाँत होते तो चीनी खींचे चले आते और उन्हें तोड़-फोड़कर दवाइयाँ बना डालते । मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि अबसे कुछ वर्षों के उपरांत वामी-कामी वर्ग को यही शिकायत होगी कि शेरों ने दाँत तो दिखाये पर किसी को काटा नहीं – ये कैसे शेर पाले साहेब ने !
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