दुर्गा देवी वोरा की भूली-बिसरी वीरगाथा

दुर्गा देवी वोरा, और उनकी ननद, सुशीला, को लाहौर से दिल्ली बुलवा भेजा गया, ताकि वे भगत सिंह के फेरवेल में सम्मिलित हो सकें । 8 अप्रेल 1929 को दिल्ली के कसीदिया पार्क में एक पिकनिक का आयोजन हुआ, जिसमे सम्मिलित हुए चन्द्रशेखर आज़ाद, भगवती चरण वोरा, भगत सिंह, सुशीला, दुर्गा और उनका पुत्र सचीन्द्र वोरा । भगत के कुछ पसंदीदा व्यंजनों के साथ-साथ मिठाइयाँ और संतरे भी परोसे गए । सुशीला से विजयतिलक करवाकर भगत सिंह सीधा सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली पहुँचे जहां पर बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर उन्हें बम और पर्चे फेंकने थे । चन्द्रशेखर आज़ाद कसीदिया पार्क से निकले और अन्तर्धान हो गए । वोरा परिवार एक तांगे पर सवार होकर एसेम्बली के आसपास ही चक्कर लगाने लगे । भगत सिंह को जब गिरफ्तार करके ले जाया जा रहा था तो उन्हें देखकर सचीन्द्र ‘लंबा चाचू, लंबा चाचू’ कहकर चिल्लाने लगा था ।  

लंबे चाचू और दुर्गा माँ के साथ सचिन ने कुछ ही महीने पहले (दिसंबर 1928) लाहौर से कलकत्ता तक की रेल यात्रा की थी । सौंडर्स की हत्या के बाद भगत सिंह ने अपनी दाढ़ी और बाल मुंडवा लिए, यूरोपीय वेशभूषा धारण की तथा दुर्गा एवं तीन साल के सचीन्द्र के साथ ट्रेन में सवार होकर लाहौर से कलकत्ता निकल आए । राजगुरु भी साथ चले, नौकर का भेष धरकर । बस यहीं से दुर्गा भाभी के नाम से लोकप्रिय हो गईं । लखनऊ से बाकायदा तार कर दिया गया । कलकत्ता स्टेशन पर भगत-दुर्गावती-सचीन्द्र और राजगुरु की आवभगत करने भगवतीचरण एवं सुशीला दोनों पहुंचे ।

क्या ही सूरमा परिवार था – भगवतीचरण वोरा एक कद्दावर क्रांतिकारी नेता और बुद्धिजीवी थे । उन्होने भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास और The Philosophy of the Bomb जैसी पुस्तकें लिखीं । वोरा के घर पर ही, चाहे लाहौर हो या दिल्ली में, युवा क्रांतिकारियों का मजमा लगा रहता । दुर्गा पढ़ी-लिखी नहीं थीं, पर शनैः-शनैः उनकी उत्सुकता जागृत हुई । वोरा दंपत्ति ने Himalayan Toilets की आड़ में दिल्ली के कुतुब रोड पर बम फेक्टरी चला रहे HSRA के बिमल प्रसाद जैन को हर तरह से सहायता प्रदान की । पति भगवतीचरण लखनऊ के एक संभ्रांत गुजराती परिवार से आते थे । पिता शिवचरण को अंग्रेजों ने राय बहादुर की उपाधि से नवाजा था । लाहौर में पढ़ते हुए भगवती भगत के संपर्क में आए, और फिर HSRA की प्रमुख वाणी के तौर पर उभरे । उनकी भार्या दुर्गा और अग्रजा सुशीला भी आंदोलन से जुड़ गईं । भगत सिंह को जेल से छुड़वाने की योजना बनाई जा रही थी । इसी दौरान  मई 1930 में रावी के किनारे परीक्षण करते हुए एक बम भगवती चरण वोरा के हाथ में ही फट गया और तत्काल उनकी मृत्यु हो गयी ।

पति की अकाल मृत्यु भी दुर्गा के संकल्प को डिगा न सकी । एक जासूस और एक ‘पोस्टबॉक्स’ का काम वे निरंतर करती रहीं । चौंसठ दिनों की भूख हड़ताल के बाद जतिन दास की मृत्यु हो जाने पर दुर्गा ने एक विशाल विरोध यात्रा निकाली । भगत सिंह की कानूनी सहायता के लिए अपने गहने बेचकर भी उन्होने धन इकट्ठा किया । वह जहां जातीं, सचीन्द्र साथ ही जाता । उससे कवर मिल जाता था । सूचनाएँ लेकर कभी लहंगा पहनकर जयपुर जातीं, तो कभी सलवार कमीज़ पहनकर पेशावर ।

7 अक्तूबर को भगत सिंह को फांसी की सज़ा सुनाई गयी । 8 अक्टूबर को ही बंबई में ठहरे हुए पंजाब के गवर्नर ही हत्या की योजना बनी, पर तगड़ी सुरक्षा के चलते दुर्गा और पृथ्वी सिंह उसके बंगले में प्रविष्टि नहीं पा सके । इसी निराशा में और ‘कुछ करना है’ की धुन में दोनों ने चलती कार से लेमिंग्टन रोड पुलिस स्टेशन के बाहर खड़े एक यूरोपीय दंपत्ति पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं । दंपत्ति बुरी तरह जख्मी होने के बावजूद बच गए । पुलिस को सूचना मिली कि हमलावरों में एक गौर-वर्ण की गुजराती महिला भी थी, जिसने पुरुषों के वस्त्र पहने हुए थे । किसी महिला द्वारा इस तरह के हमले की यह संभवतः पहली वारदात थी ।

इसके बाद पुलिस दुर्गा देवी की धरपकड़ में लग गयी । डेढ़-दो बरस तक पुलिस के साथ चूहा-बिल्ली खेलने के बाद दुर्गा भाभी ने अंततः 1932 में सरेंडर कर दिया ।  उन्हें तीन वर्ष की सज़ा हुई । कोई भी अभियोग साबित नहीं हो सका । भगवतीचरण के प्रभाव में दुर्गा ने न केवल इंटर किया था बल्कि प्रभाकर की डिग्री भी प्राप्त की थी । 1907 में प्रयागराज में जन्मी दुर्गा ने 1935 में कारावास से मुक्त हो कर गाजियाबाद में पढ़ाना प्रारम्भ किया । वे काँग्रेस में शामिल हुईं और दिल्ली प्रदेश काँग्रेस की अध्यक्षा भी रहीं । पर राजनीति उन्हें रास नहीं आई और 1940 में उन्होने लखनऊ में पुराना किला के पास City Montessori School स्थापित किया । 1999 में अपनी मृत्यु तक वे शिक्षा से जुड़ी रहीं । दुर्गा देवी वोरा ने एक जासूस, पोस्ट-बॉक्स, राजनेता, क्रांतिकारी, शिक्षाविद जैसी अनेक भूमिकाएँ निभाईं, पर इतिहास उन्हें ‘दुर्गा भाभी’ के तौर पर ही स्मरण करता है, यह भी एक विडम्बना ही है ।


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One Comment Add yours

  1. gnandu says:

    महान स्वतंत्रता सेनानी का स्मरण एक मनो शक्ति देता उनके योगदान राजनेतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर रह गए हैं यह इस देश का दुर्भाग्य ही है

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