किसी नए नगर में बस जाने से,
पुराने घर नहीं छूट जाते,
आज भले मैं हूँ कहीं पर,
काशी, कलकत्ता याद नहीं आते ?
दर्शन करते हुए महाकाल के,
क्यूँ कालीघाट पहुँच जाता हूँ,
रसगुल्ले चाहे हों ‘गागर’ के,
स्वाद ‘बलराम मलिक’ का पाता हूँ !
सब्जी लेने पहुंचा बिट्टन,
गाड़ी लगा बेलियाघाटा में,
फिर लाल घाटी से निकल कर,
लौट आता हूँ तलवंडी के घर ।
प्रातः भ्रमण करते ‘साल्ट लेक’ में,
‘राजपथ क्लब’ घूम आता हूँ,
रेतघाट हो या हो प्रिंसेप,
सूर्यास्त अस्सी का ही पाता हूँ ।
मसाले, मौसम, पड़ोसी, गलियाँ,
भाषा, त्योहार, बाज़ार, मिठाइयाँ, –
शौक, ज़बान और रहन-सहन-
का हो चुका सब घालमेल,
क्या भूत, क्या है वर्तमान,
सीधी, कभी उल्टी चलती रेल ।
रहते गए जिन-जिन नगरों में,
बनकर अंग-प्रत्यंग जुड़ते रहे-
फेफड़े भोपाल, कलकत्ता यकृत,
गुर्दे हो गए मुजफ्फरनगर,
आँतें अहमदाबाद, आमाशय कोटा,
काशी मेरा मर्मस्थल,
हूँ कहीं भी, दिन-प्रहर कोई हो,
हूँ हर एक शहर में,
जहां-जहां पर गाड़ा तम्बू
इस जीवन के सफर में ।

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कमाल का लिखा है , हमारी पीढ़ी की आपाधापी , identical crisis सभी कुछ
काशी और कोलकाता को तो बहुत गहराई से महसूस किया।
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