
मार्ग पर चलते हुए,
मनन-चिंतन करते हुए,
जहां तक गयी दृष्टि,
छितराए पड़े थे,
लाल फूल ही लाल फूल……..
ग्रीवा उठाकर इधर-उधर देखा,
चहुंओर हरा और लाल,
अनंत नीला परिप्रेक्ष्य,
बीच-बीच में पुष्पवर्षा,
साधारण सड़क किसी चित्र-सी सुशोभित ।
ना मानो, तो कुछ नहीं,
हैं वही पुराने गुलमोहर,
जो बूझ सको सौन्दर्य अगर तो,
रंग लाल, रंगत अति मनोहर,
गुलमोहर हैं, गुल मोहर !
लाल फूल हैं, सुर्ख लाल!
आसक्त हो कर चमके लाल,
धूप में तपकर हुए लाल,
भक्ति में रंग गए लाल,
लहू से भी गहरे ये लाल !
चूंकि प्रभु मस्तक पर सजाये,
तो कृष्णचूड़ भी कहलाए,
आभूषणों से सुसज्जित वृक्ष को,
राज आभरण पुकारा जाये,
नाम चला लेकिन एक ही-
गुलमोहर ही जनमानस को भाए,
पुष्पित हो जब यह वृक्ष तब,
नगर विवाह-मंडप सा सज जाए ।

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