कौन है वह निरा मूर्ख जो भारत को एक राष्ट्र नहीं मानता ?

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अणुभाष अपने करों में संभालते ही यह चिरयुवा नायक स्वनामधान्य विद्वान हो जाता है । संवाद करते-करते कभी सनातन पर प्रवचन देने लगता है, तो कभी संविधान का भाष्य बताने लगता है । कभी तो विद्रोही स्वरूप धरकर जनक्रांति की चेतावनी देने लगता है, तो कभी शब्दानुशासन भंग करके उनकी नयी व्याख्याएँ करने लगता है । लंबी अवधि से सत्ता से विमुख हो कर और जनचेतना में स्वयं का उपहास करवाते-करवाते संभव है अंतरात्मा पूर्णतया शुष्क हो चुकी हो । अपने विरोधी के दृढ़ संकल्प और नियति के समक्ष पूरी तरह विवश है । परंतु उसका प्रयोजन आज भी वही है – धर्म, इतिहास, भूगोल, साहित्य, विधि और दर्शन को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाये जिससे हिन्दू हितों और भावनाओं को चोट पहुंचती रहे, और हिन्दूविरोधियों का अनवरत तुष्टीकरण होता रहे ।

सबसे नवीन पुनर्व्याख्या ‘राष्ट्र’ शब्द की हुई है । विदेशी मंच से ज्ञानोदय हुआ है कि राष्ट्र का अर्थ है – Kingdom ।  ये महान घोषणा जिस देश में हुई है उसका आधिकारिक नाम ही है United Kingdom – जो कि चिरयुवा के अनुसार हुआ संयुक्त राष्ट्र  । पर संयुक्त राष्ट्र को तो समस्त विश्व United Nations के नाम से जानता है । इस ज्ञानजन्तु के तो हाथ-पैर ही नदारद लगते हैं । इसपर भी नायक के पिट्ठू कहेंगे कि Nation तो पश्चिमी संकल्पना है । यदि ऐसा ही है तो भारत पर उसे लागू करने का प्रयास ही क्यूँ किया जा रहा है ? क्या नायक को इतना विदित नहीं है कि भारत पूर्व में स्थित है ?

जब चाणक्य ने महाजनपदों को रोपित करके राष्ट्रनिर्माण किया था तो क्या उसके पीछे एकता और अखंडता की भावना नहीं थी ? जब आदि शंकर ने समस्त भारतवर्ष में सनातन पीठ स्थापित की थीं, तब क्या राष्ट्र की अवधारणा नहीं थी ? शिवाजी का हिन्द स्वराज और तदोपरांत कृष्णा से अटोक तक विस्तृत मराठा साम्राज्य क्या आधुनिक राष्ट्र के परवर्ती नहीं थे ? संविधान की प्रस्तावना में क्या राष्ट्र का उल्लेख नहीं है ? क्या पंडित नेहरू के भाषण ‘नियति से साक्षात्कार’ (A Tryst With Destiny) में राष्ट्र की उस दबी-कुचली आत्मा का भावपूर्ण वर्णन नहीं है जिसे सदियों के उपरांत स्वयं को अभिव्यक्त करने का अवसर प्राप्त हुआ है ? ऐसे गौरवशाली इतिहास को अपनी रक्त-पिपासु महत्वकांक्षा की पूर्ति हेतु अज्ञान, अल्पज्ञान एवं झूठे कथनात्मक की परतों में लपेटकर विस्मृत तथा अस्वीकार कर देना बहुत ही निचले स्तर की कुंठित राजनीति का परिचायक है । ऐसा दोगलापन किसी नायक को शोभा नहीं देता , बल्कि ऐसी छिछली सोच रखनेवाला कोई अवसरवादी कुकुरमुत्ता ही हो सकता है ।

राष्ट्र का अर्थ kingdom है, तो फिर राष्ट्रपति कौन हुआ ? स्वयं किंग अथवा राजा/रानी, या राजा/रानी का पत्नी/पति ? वैसे हमारे एक राष्ट्रपति ऐसे भी हुए हैं जिनहोने ऐसा करने को कहे जाने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री के आवास पर झाड़ू तक लगा देने की बात कही थी । एक प्रश्न यह भी उठता है कि राष्ट्र है ही नहीं तो फिर राष्ट्रपिता कैसे हुए ? क्या फिर गांधी Father of the Union of States as per Article 1 of the Indian Constitution हैं ? अर्थात भारतीय संयुक्त राज्य संघ के पिता ? ये तो अमरीका से मिलता-जुलता नामकरण हो गया ! पर भारत और अमरीका की मूलभूत संरचनाएं और ऐतिहासिक प्रक्रियाएं ही पृथक हैं । इसी लिए हमारे देश का नाम संयुक्त राज्य (US) अथवा संयुक्त गणराज्य (as in USSR), या फिर UK से मिलता-जुलता नहीं है । ऐसा किसी भूलवश नहीं हो गया , बल्कि वाद-विवादों के उपरांत संविधान सभा में यह निर्णय हुआ था । 

पर हम तर्क पर कहाँ जा पहुँचे ? यहाँ तो मंशा ही कुछ और है । पहले अखंड भारत का उपहास उड़ाया गया , फिर राष्ट्रवाद को देशभक्ति से हीन और शांति के मार्ग में रोड़ा बता दिया गया । अब भारत ‘एक राष्ट्र न कभी था, न अभी है’ और उसके घटक राज्यों में असंतोष व्याप्त है, ऐसा प्रचारित किया जा रहा है । चर्चिल भारत को मात्र एक ‘भौगोलिक व्यंजक’ मानता था, जो एक राष्ट्र नहीं, अपितु अनेकों राष्ट्रों का समूह है । कोई भी दुर्बुद्धि अगर भारत निंदकों और विरोधिओं की चिर कार्यावली (agenda) को पुनः प्रचारित कर रहा है, तो वह भारतवर्ष नाम के इस सभ्यतागत-राष्ट्र (civilizational nation) का अपमान कर रहा है, और हमारा घोर शत्रु है ।  


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