
अभी हाल ही में अनुसूचित जनजाति का एक युवक 13 बरस का कारावास काटकर भोपाल जेल से रिहा हुआ । उच्च न्यायालय ने उस पर लगे हत्या के आरोप को सिरे से खारिज कर दिया । माननीय न्यायालय ने तीखे स्वर में पुलिस की भर्त्सना की और समूची जांच को मनघड़न्त, गैर-जिम्मेदार और विद्वेषपूर्ण पाया । प्रोसेक्यूशन का पूरा केस केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर खड़ा था । मेडिकल अंतिम वर्ष के इस छात्र को फसाने के इरादे से पुलिस ने न तो ठीक से तफ़्तीश की, और न ही किसी अधिकारी ने अपने विवेक का इस्तेमाल ही किया । न्यायालय ने अपने आदेश में घटना के मुख्य गवाह तथा श्रीरीवास्तव नाम के तत्कालीन पुलिस आईजी की निकटता पर भी सवाल उठाए हैं । पुलिस की तहक़ीक़ात, चार्जशीट और निचली अदालत का फैसला- सब कुछ महज 11 महीनों में सुलट गया ।
कोई अन्य केस याद आता है जो इतनी शीघ्रता से अंजाम तक पहुँच गया हो ?
चंद्रेश मार्सकोले पर अपनी सखी की हत्या का आरोप लगाया गया था । उसका एक सीनियर पुलिस का मुख्य गवाह बना, और इस सीनियर का ड्राइवर चश्मदीद गवाह हो गया । सीनियर ने बताया कि उसकी गाड़ी और ड्राइवर को लेकर चंद्रेश और उसकी सखी पंचमढ़ी गए थे । वहीं पर सखी कि हत्या कर दी गयी, और ड्राइवर ने चंद्रेश को लाश को खाई में फेंकते हुए अपनी आँखों से देखा । इस पूरी कहानी को अक्षरशः सत्य मानकर चंद्रेश को आरोपित कर दिया गया । पुलिस से यह पूछते न बना कि अपनी गाड़ी-ड्राइवर चंद्रेश को सौंपकर वह सीनियर स्वयं क्यूँ किसी अन्य साधन से उसी दिन इंदौर गया था । कहने का तात्पर्य है कि बहुत अजीब लगता है कि जब आवश्यकता थी, तो सीनियर स्वयं ही अपना वाहन इंदौर क्यूँ नहीं ले गया ? फिर यह पड़ताल भी नहीं हुई कि वहाँ किससे मिला, क्या किया ? टोल नाके की रसीद से साफ चला चलता है कि पंचमढ़ी जा रही गाड़ी में ड्राइवर के अलावा चार लोग थे , पर पुलिस ने यह जानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई कि वे आखिर कौन थे ? ड्राइवर भी बाद में अपने बयान से पलट गया । लाश पर से वीर्य बरामद हुआ था, उसकी कोई डीएनए जांच नहीं हुई । गाड़ी और पंचमढ़ी के कमरे की, जहां चंद्रेश ठहरा था, कोई फोरेंसिक जांच करने की जहमत नहीं उठाई गयी । फिर पुलिस ने अपने इन्वेस्टिगेशन में क्या झक मारा? ऐसी लचर जांच के लिए क्या माननीय न्यायालय ने आईजी श्रीवास्तव (जिसने केस की देखरेख भी की) और अन्य किसी पुलिसकर्मी पर किसी भी तरह की कोई कार्यवाही के निर्देश दिये हैं?
तेरह साल – जरा सोचिए आप 2008-09 में क्या कर रहे थे ! 23 साल का युवा 36 का हो कर बाहर आया है । पूरी जवानी जेल में खप गयी । माँ-बाप पर क्या गुज़री होगी? एक ऐसे केस में अंदर सड़ता रहा जिसमे उच्च न्यायालय को तनिक भी दम नज़र नहीं आया । जब केस इतना ही ढीला था, तो माननीय उच्च न्यायालय को भी बारह साल नहीं खर्चने चाहिए थे । कितनी गहराई में तफ़्तीश हुई है, और साक्ष्य एवं गवाह कितने दमदार हैं, क्या इसपर तो समयबद्ध तरीखे से साल-दो साल में अन्तरिम निर्णय आ जाना चाहिए । इंद्राणी मुखर्जी को अपनी बेटी की हत्या के आरोप में इस हफ्ते बेल मिल गयी है । चूंकि ट्रायल पूरी होने में अभी समय लगेगा, इस बिना पर उसे फिलहाल रिहा कर दिया गया है । चंद्रेश के साथ ऐसा बर्ताव क्यूँ नहीं हुआ?
यह गोंड लड़का एक और वर्ष की पढ़ाई के उपरांत बालाघाट ज़िले की वारासिवनी तहसील के डोके गाँव का पहला डॉक्टर बन गया होता । पढ़ाई वह अब भी करेगा । कोर्ट ने उसे अनुमति दी है । 42 लाख रुपए का हरजाना भी सरकार की ओर से उसके मुंह में भर दिया जाएगा । पर गुजरे हुए बरस वापस नहीं आएंगे । जो जवानी सलाखों के पीछे बीत गयी, वह वापस नहीं आएगी । आशा है कि इस नौजवान में थोड़ा-बहुत जज़्बा अभी भी बाकी होगा ।
एक अतिमहत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि निचली अदालत को जिरह के दौरान क्या न्याय का फ़लूदा होता नहीं दिखा ? पुलिस की भूमिका संदेशस्पद नहीं लगी? क्या तब कानून अंधा हो गया था? क्या निचली अदालतें खानापूर्ति-भर के लिए हैं ? यह अभियोग तो प्रथम दृष्ट्या ही हवा-हवाई जान पड़ता है । आनन-फ़ानन में फैसला सुनाकर निचली अदालत ने कहीं न्याय का गला तो नहीं घोंट दिया? पुलिस से तो खैर कोई भी ठीक-ठाक नागरिक व्यर्थ उम्मीद नहीं पालता, लेकिन अदालत को तो साक्ष्य उलट-पलट कर देखने चाहिए थे । न्यायालय ने भी पुलिस को ही आड़े-हाथों लिया है, एडिशनल सेशन्स जज के आदेश पर कुछ नहीं कहा । ऐसे महान न्यायमूर्ति की तारीफ में भी कसीधे काढ़े जाने चाहिए थे, उनका जनसम्मान होना चाहिए थे ।
ये कैसा चुप्पी का षड्यंत्र है ?
कानून के दिन-प्रतिदिन उड़ते मखौल पर तभी नकेल कसेगी जब साजिश में लिप्त एवं अक्षम पुलिस अधिकारियों, और न्याय को ताक पर रखकर निर्णय सुना देने वाले जजों के साथ सख्ती बरती जाएगी । कमाल की बात यह है कि जहां हाई कोर्ट मुख्य गवाह पर संदेह जता रहा है, वहीं पुलिस और निचली अदालत ने जैसे आँखें मूँद लीं थीं । चंद्रेश का जितना बुरा होना था, हो चुका है, पर इस मामले में हत्या, साक्ष्य मिटाने और गुमराह करने जैसे षड्यंत्र और अन्याय- इनके लिए उच्च न्यायालय को अपनी निगरानी में जांच बैठानी चाहिए ।
और हाँ, बयालीस लाख में बात नहीं बनेगी !
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