
जिन दिनकर को समस्त भारतवर्ष ने राष्ट्रवादी चेतना एवं वीर रस के प्रखरतम राष्ट्रकवि के रूप मे जाना, उन्हीं रामधारी सिंह को जीवन के अंतिम वर्षों में विरक्ति-सी हो गयी थी । उनका आखिरी समय बहुत अवसाद में कटा ।
मद्रास में बीती अपनी अंतिम संध्या पर दिनकर ने डायरी में लिखा-
“सब कुछ पाकर भी
मनुष्य इतना खाली-खाली क्यूँ है?”
24 अप्रेल की रात को उनकी हार्दिक अभिलाषा पूर्ण हुई । अंततोगत्वा महासागर ने उन्हें उनका पारिश्रमिक प्रदान कर ही दिया । उसी दोपहर को तट पर बैठकर दिनकर ने रश्मिरथी का पाठ करने के उपरांत समुद्र से कहा था कि तुम्हारे बेटी और दामाद ( लक्ष्मी-विष्णु) को बहुत सी कवितायें सुना कर आ रहा हूँ , मेरा प्राप्य देकर अब मुझे कृतार्थ करो । अपना बैग खोलकर समस्त सामान सागर को अर्पित कर दिया । साथी गंगाशरण सिंह (सांसद) ने पूछा कि यह क्या कर रहे हो, तो बोले अब आवश्यकता नहीं पड़ेगी, जिसका है उसे लौटा रहा हूँ । 23 अप्रेल को तिरुपति बालाजी मंदिर में दर्शन करते हुए दिनकर का मुख यकायक अलौकिक आभा से चमक उठा था । भगवान के सामने बैठकर वहीं रश्मीरथी का पाठ आरंभ किया । लाउडस्पीकर लगा दिये गए, उस अहिंदीभाषी क्षेत्र में जमावड़ा लग गया । धाराप्रवाह पढ़ते हुए महाकवि ने कृष्ण के विराट रूप का वर्णन किया । दिनकर के बंद नेत्रों से अश्रुधारा और श्रीमुख से शब्द बहते रहे । मंत्रमुग्ध हो कर सुन रहे भक्तगण कहाँ जानते थे कि यह रामधारी सिंह का अंतिम वाचन होगा । कविता पाठ बहुत समय तक चला । सुना प्रभु को रहे थे, सजल नेत्रों से दिनकर ने बालाजी से पारिश्रमिक भी मांगा – “मुझे उठा लो।“
21 अप्रेल को यही मन में धरकर तिरुपति को प्रस्थान किए थे । उन दिनों बहुत उद्विग्न थे, किसी सिद्ध ने सुझाव दिया कि शांति प्राप्त करनी है तो तिरुपति जाओ । उस दिन एक काव्य गोष्ठी में सम्मिलित हुए, जिसके अंत में दिनकर के प्रिय बालकवि बैरागी ने उनसे पूछा-“तिरुपति से मेरे लिए क्या ले कर आओगे?”
“कुछ नहीं लाऊँगा” ।
पास बैठे कवि गोपाल प्रसाद शर्मा भी पूछ बैठे – “मेरे लिए क्या लाओगे” । दिनकर ने उन्हें भी टका-सा उत्तर दिया – “कुछ नहीं लाऊँगा”।
“मेरे लिए नहीं लाओगे , इनके लिए नहीं लाओगे , तो क्या लेने जा रहे हो तिरुपति?”, बैरागी पूछ बैठे ।
“मैं मृत्यु लेने जा रहा हूँ, बस बहुत हुआ”, अवसाद में डूबे दिनकर ने कहा । बैरागी और शर्मा अवाक रह गए । यह कैसी घोषणा है ! जाते हुए उनकी एक नातिन द्वारा तिरुपति जाने का प्रयोजन पूछने पर भी दिनकर ने यही उत्तर दिया । वह मन बना चुके थे कि अब लौट कर नहीं आना है । कवि-कल्पना जैसा चाहती, वैसा ही छंद लिखा जाता है ।
सन 1952 से 1964 तक दिनकर तीन बार राज्य सभा के लिए चुने गए , लेकिन राजनीति और दिल्ली से मन ऊब गया था । अपने ज्येष्ठ पुत्र से भी बहुत मनमुटाव चल रहा था । ऐसे में 1964 में त्यागपत्र देकर भागलपुर चले गए, तिलका माँझा विश्वविद्यालय के उप-कुलपति बनकर । डेढ़ बरस में वहाँ से भी मन उचाट गया, कारण वही सस्ती राजनीति । वहाँ से नौकरी छोड़ने पर परिवार में अभाव उत्पन्न हो गया । पुनः दिल्ली लौटे, राष्ट्रीय हिन्दी सलाहकार बनकर । 1971 में कार्यकाल पूरा होने पर बिहार आते ही लकवा ग्रस्त हो गए । चौंसठ के बाद दिनकर की कविता शांतप्रायः हो गयी । 1970 में हारे को हरिनाम और भगवान के डाकिये – दो कविता संग्रह प्रकाशित हुए, लेकिन अधिकांश कवितायें 1965 के पहले की ही थीं, और उनमें वो दिनकर वाली बात कहाँ थी । अंतिम वर्षों में दिनकर ने उदायांचाल नाम से एक प्रकाशन अजेंसी भी चलाई , पर अधिक सफलता नहीं मिल सकी ।
लकवे के उपरांत दिनकर अस्ताञ्चल पर अधिक मनन करने लगे । अपनी अंतिम कविता में उन्होने श्री राम में अपनी आस्था दोहराई –
राम, तुम्हारा नाम,
कंठ में रहे,
हृदय , जो कुछ भेजो,
वो सहे,
दुख से त्राण नहीं माँगूँ,
माँगूँ केवल शक्ति,
दुख सहने की ।
दुर्दिन को भी मान
तुम्हारी दया,
अकातर ध्यान-
मग्न रहने की ।
रामधारी सिंह पुत्र बाबू रवि सिंह ने स्वयं को दिनकर कहा, और फिर सूर्य की भांति देदीप्यमान होकर हिन्दी जगत को प्रकाशमय कर दिया । दिनकर को ओजस्वी कविता के लिए जाना जाता है , लेकिन उनके जीवन के द्वंद्व और अंतिम वर्षों की रिक्तता की अपनी एक कहानी है । पहले पारिवारिक दायित्वों के चलते नौकरी करते रहने की बाध्यता ने उन्हें बहुत कष्ट पहुंचाया । फिर जीवन के अंतिम दशक में घरेलू कलह और खराब स्वास्थ्य ने दिनकर को आस्तित्विक निराशा से भर दिया ।
पिता तभी चल बसे थे जब रामधारी जी की अवस्था दो वर्ष की थी । निर्धनता के चलते अग्रज और अनुज दोनों ने ही उनकी पढ़ाई हेतु बहुत त्याग किए थे । स्वयं पढ़-लिख गए तो तीन परिवारों की ज़िम्मेदारी उन पर पड़ी । इसी चलते बिहार सरकार में नौकरी करने की विवशता थी । कहाँ तो अन्याय के विरोध में हुंकार भरता और जनमानस में चेतना का संचार करता कवि हृदय, और कहाँ अङ्ग्रेज़ी सरकार की ड्यूटी बजता सरकारी मुलाज़िम ! एक तरफ तो सरकार कुपित रही, दूसरी ओर राष्ट्रवादी खेमा गाहे-बगाहे उनपर ताने कस देता । 1938 से1942 के बीच के चार वर्षों में दिनकर ने 22 तबादले झेले । 1942 से 1945 के बीच उनकी नियुक्ति युद्ध प्रचार विभाग में रही । महाकवि ने ये वर्ष अत्यधिक अवसाद में काटे , लेकिन परिवार की 12 में से 9 बेटियों के विवाह करवाने के साथ-साथ कुरुक्षेत्र की रचना भी की, जो कि 1946 में प्रकाशित हुई । सन पैंतालीस में दिनकर की उपस्थिति में ही माखनलाल चतुर्वेदी ने एक कवि सम्मलेन में यह कह डाला कि हमारे राष्ट्रकवि चाँदी के टुकड़ों पर पलते हैं । तिलमिलाए दिनकर ने त्यागपत्र देने की ठानी, और पत्रकार बन गए ।
आने वाले बीस वर्ष (1945-64), दिनकर के लिए बहुत फलदायी रहे । नौकरी छोडकर, राजनीति में उतरकर और घर (बिहार) से दूर रहकर, दिनकर ने श्रेष्ठ सृजन किया । यहाँ पर संभवतः एक सीख है – नौकरी का पट्टा हटने पर रचनात्मक ऊर्जा का प्रवाह होना अवश्यंभावी है । पारिवारिक कलह और कठिनाइयाँ जीवन का अभाज्य भाग हैं, उनसे पलायन नहीं किया जा सकता एवं उनके चलते उत्पन्न हुआ उन्माद सम्बन्धों की गहराइयों को समझकर साहित्यिक सोच को बढ़ावा ही देता है । किसी माखनलाल चतुर्वेदी के कटाक्ष की प्रतीक्षा न करें, जितना शीघ्र हो सके पट्टा उतार कर फेंक दें ।
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