
हर अवरोध पर चौंकना भले हमारी आदत बन गई हो,
पर हमारा डीएनए नहीं बनना चाहिए,
चुनौती सामने खड़ी है- स्पष्ट, चमकती हुई,
प्रश्नवाचक बन कर,
हमारा जवाब मांगती,
हमें चेताती, चौकन्ना करती,
छतों पर, खड़ी है–
पत्थर लिए हाथों में,
बोतलों में पेट्रोल भरे,
(117 रुपए लीटर वाला वही महंगा पेट्रोल,
जो तुमको न सोने देता है, न रोने),
असला-बारूद भी जमा होगा,
ज़बान पर मजहबी नारे,
और बेहद भद्दी गालियां,
आप प्रतिबंधित क्षेत्र से निकल कर दिखाइए,
आपका स्वागत होगा यमलोक में ।
यह चुनौती न मॉनसून के घने बादल हैं,
न कोरोना की तरह आता-जाता शौक,
बल्कि सूर्य की तरह नित्या,
स्थायी, प्रतिदिन ललकारती,
आकार, हठधर्मिता जिसकी बढ़ती ही जाती,
कल तक थी गंगा-जमना रटती,
आज गंगा को सुखाने में लगी,
मतान्ध, अकड़ू समस्या,
जिसका कोई भी हल,
हिंसा का तांडव किए बिना संभव नहीं,
क्या होगा, और कैसे,
यह अब आपके ऊपर रहा भी नहीं !
चुनाव इस चुनौती का हल नहीं हैं,
राजनीति भले संख्या का खेल हो,
लेकिन सीधा, सरल नहीं है,
प्रतिशत निर्णय देंगे कौन कहाँ बैठेगा,
क्या विधान पारित होगा, कौनसा हटेगा,
पर बात आखिर में वहीं जाकर टिकेगी,
कि सड़कें किसके अधिकार में हैं,
वोट किसके ज्यादा हैं,
कौन अधिक गैर-वाजिब हो सकता है,
लड़ाई करने को कौन आतुर है,
किसे हर कीमत पर शांति चाहिए,
किसने तैयारी की है,
कौन धृतराष्ट्र बना बैठा रहा,
किसे धर्म की पताका लहरानी है,
किसे दासता का जीवन भी स्वीकार्य है ।
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