
मैं हूँ क्या ?
और
मैं क्या हूँ ?
क्या हैं एक ही प्रश्न के दो रूप,
अथवा दो भिन्न दार्शनिक पहेलियाँ?
तर्क-वितर्क की नूरा कुश्ती,
हिन्दी भाषा की अकड़ या लचीलापन,
केवल वाक्य विन्यास की बाल-सुलभ क्रीडा,
या मस्तिष्क में लगा कोई परजीवी कीड़ा?
अब क्या शब्दों के अनुक्रम पर भी संदेह करूँ?
बेहतर होगा बोलते हुए अपने भावों पर ही गौर करूँ,
एक-एक शब्द को सावधानीपूर्वक तौलना होगा,
ऐसे ही छिपा हुआ अर्थ मुझे यहीं खोजना होगा,
मैं हूँ क्या में तो स्वयं को ही नाप-तौल दिया,
मैं क्या हूँ में एक आस्तित्विक सवाल किया,
मैं हूँ क्या में क्या नहीं हूँ इसका तो भान है,
मैं क्या हूँ में एक संभावना सर्वशक्तिमान है,
मैं हूँ क्या मुझे सीमित करता है अपने में ही,
मैं क्या हूँ मुझमें ब्रह्म और मुझे ब्रह्म में देखता है ।
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