
मान्यवर की चुल्ल फेक्टरी से कुछ महीनों पहले एक नया विज्ञापन जारी हुआ था, जिसका लक्ष्य था ‘कन्यादान’ की आड़ में हिन्दू रीतियों को पित्रसत्तात्मक, अतः हीन एवं रूढ़िवादी बताना । हिन्दू वधू-सी सजी आलिया भट्ट को ‘कन्यादान’ शब्द के प्रयोग पर आपत्ति है, और वह चाहती है कि किसी भी कन्या का दान न हो, अपितु उसे मान-सम्मान मिले । हिन्दू शास्त्रों के अनुसार कन्या को सम्मान मिलता रहा है, और सदैव मिलता रहे, ये एक श्रेष्ठ कामना है । कन्यामान सरीखे चोंचले सुनने में भले नवीन लगें, परंतु यह प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति रही है । यहाँ यह समझना आवश्यक है कि कन्यादान का अभिप्राय पुत्री को भिक्षा में दे देने से नहीं है । पर चूंकि आधुनिक युग में हम संस्कृत, शास्त्रों, यहाँ तक कि हिन्दी में भी सजह नहीं रहे, तो सामान्य शब्दों और उनके अभिप्रायों को भी उचित संदर्भ में देख-समझ पाने की दक्षता गंवा बैठे हैं ।
वोक कथानात्मक का लक्ष्य सनातन संस्कारों और परम्पराओं को पित्रासत्तात्मक, जातिवादी और पर्यावरण के लिए हानिकारक सिद्ध करने का रहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ पर दान का अर्थ समझने में या तो चूक हुई है, अथवा एड-निर्माता का प्रयोजन ही हिन्दू रीति की भर्तस्ना करने का है । किसी भी वस्तु से – चाहे जीवन हो, अथवा पुत्री, या संपत्ति – स्व (स्वयं) का स्वार्थ (stake) न्यून करते हुए उसे सामाजिक, धार्मिक या राष्ट्रहित में समर्पित कर देना, दान कहलाता है । अतः कन्यादान का अर्थ कन्या की भिक्षा देना नहीं हुआ, कन्या का, कन्या के और सामाजिक हित हेतु, पाणिग्रहण में बंधना है । पिता अपनी किसी संपत्ति को भिक्षा में नहीं दे रहे, अपितु पुत्री का विधिवत संकल्प के माध्यम से पाणिग्रहण करवा रहे हैं । वधू के माता-पिता अपने अनुशासन को तनिक ढीला करते हुए उसे अपने वर के साथ नवजीवन आरंभ करने की शुभकामनायें दे रहे हैं । जो, अथवा जिसे, दान में दिया जा रहा है, वह केवल स्वयं का न रहकर, जनकल्याण हेतु समाज का हो रहा है । दान एवं कन्यादान के पीछे यह भाव निहित है ।
यहाँ ध्यातव्य है कि केवल कन्यादान ही नहीं किया जाता, अपितु वरदान भी दिया जाता है । वर का अर्थ है उत्तम या श्रेष्ठ । फेमिनाज़ियों तो अगर यह पता लगे तो इसपर भी हल्ला कर सकते हैं । विवाहयोग्य कन्या हेतु वर का दान सर्वोत्तम है – वर अर्थात सक्षम और श्रेष्ठ पुरुष जिसके साथ कन्या को विवाह सूत्र में बंधना है । यह ठीक है कि आजकल पिता द्वारा अपनी पुत्री का हाथ वर के हाथों में देने की प्रथा हैं, लेकिन वर अपनी होने वाली वधू का पाणि स्वयं ही थाम ले, या उसके परिजन भी सम्मिलित रूप से उस बढ़े हुए हाथ को स्वीकार करें, इससे पाणिग्रहण की मूल भावना और आगे के चरणों में कोई अंतर नहीं पड़ता ।
मूलतः पाणिग्रहण में वर-वधू दोनों ही न केवल अपने कर, बल्कि तन-मन-धन एक दूसरे के प्रति समर्पित करते हैं । परिवारजनों और गण्यमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति में, अग्नि को साक्षी मानकर वैवाहिक संकल्प लिए जाते हैं । विवाह के सूत्र में स्त्री-पुरुष दोनों को ही समान रूप से उत्तरदायी माना गया है । इसमे भीख में देने जैसा तुच्छ भाव कहीं उत्पन्न ही नहीं होता ।
पर वोक-वामपंथी षडयंत्रों का निराकरण सकल ताड़ना द्वारा ही संभव है, शास्त्रार्थ से नहीं । वोक्स/जागृतों की परेशानियाँ बहुत सी हैं – लड़की लड़के के घर क्यूँ चली जाती है, बारात लड़की के घर क्यूँ आती है, पराया धन क्यूँ कहते हैं, विवाह का व्यय कौन और क्यूँ उठाए – छिद्रान्वेषण करने बैठेंगे तो कई पन्ने भर जाएंगे । अरे, उनको तो विवाह, परिवार, संतानोत्पत्ति, यहाँ तक कि आपके होने, और विशेषतः हिन्दू होने, पर भी आपत्ति है । कन्या को पराया धन कहने से आपको समस्या है, तो वर को कमाऊ पूत कहे जाने से भी रखिए । माना कन्या कोई गौ नहीं जिसका खूंटा खोलकर कहीं और गाड़ दिया जाए, पर वर भी तो कोल्हू का बैल नहीं है । नौकरी की सहजता और बढ़ते परिवार की आवश्यकताओं के अनुसार दंपत्ति अकेले भी रहते हैं, और कहीं-कहीं पर बाकी सदस्यों के संग भी । भारत में आज भी जीवन की गाड़ी साझा प्रयास से ही आगे बढ़ती है ।
पुराने समय के अनुसार कुछ प्रचलन चले आ रहे हैं । कुछ वर्षों पहले तक कन्याओं को पिता की संपत्ति में भाग नहीं मिलता था, चूंकि वह विवाहोपरांत अपने पति और उसके माता-पिता के घर चली जाती थी और उसके अपने परिवार का भरण-पोषण और देय वहीं से होता था । संपत्ति को व्यक्ति विशेष का मानकर उसके टुकड़े करने से बेहतर, परिवार को इकाई मानकर भूमि का निर्धारण होता था । ऐसा इसलिए भी श्रेयस्कर था क्यूंकी भूमि के जितने कम हिस्से किए जाएँ, फसल और पैदावार के हिसाब से बेहतर है । समय के साथ स्थिति में बदलाव आया है । जीवनशैली के आधार पर नियम और रीतियाँ में भी आता सुधार होते हैं । पर वोक्स का लक्ष्य हमारे हर उस अवयव को भटकाना है, जिसे भड़काकर वह समाज की नींव को अशक्त कर सकें ।
वोक्स को इस सोच से समस्या है – पिता से क्या लेना देना , जीवन तो वर-वधू का है, समाज कहाँ से आ गया, नवजीवन क्या होता है इत्यादि । पर वोक्स को तो अग्नि, वरुण, वायु से भी शिकायत रहती है । इन्हें बस निकाह हलाला, ट्रिपल तलाक, बुर्का-हिजाब और जननांग म्यूटिलेशन में ही महिला की पसंद और सशक्तिकरण द्खई देता है । वैसे भी वोक्स का उद्देश्य हिन्दू परिवार का विध्वंस है, महिला सशक्तिकरण या ‘मान की बात’ नहीं । और विवाह पर आक्रमण होगा तभी तो परिवार क्षीण होंगे । ऐसा होने पर संस्कारों का लोप होगा और समाज तार-तार हो जाएगा, ऐसी भावना है । समाज के ह्रास में ही धर्म का सर्वनाश सुनिश्चित है । ऐसा होने पर विदेशी पंथों का प्रसार अधिक सुगमता से संभव हो सकता है । जुमलाबाजी में लिप्त थोथा वोकपंथ बस प्रतीकात्मक विघटन तक सीमित है, स्त्री-पुरुष के मध्य स्वस्थ सम्बन्धों को जन्म देकर एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना में नहीं । ऐसे उथले एजेंडाधारकों के पीछे दौड़ना हमें अब बंद कर देना चाहिए ।
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