हम सिनेमा भी देखें तो सांप्रदायिक (कविता)

कल तक हम वोट देकर, मनपसंद सरकार चुनकर धर्मांध थे,

आज हम एक सिनेमा देखकर ही सांप्रदायिक हो गए,

हमारे पूजा-पाठ-मंदिरों से तो सदैव समस्या रही है,

कल को ऐसा न हो कि हमारा होना ही तुम्हें खटकने लगे ,

और सिनेमा क्या है, वह हमारी नपुंसकता का दस्तावेज़ है,

काँपते हाथों से आँसू छिपाकर थियेटर के अंधेरे में गुम हो गए,

तब जब सारे जवाब मौजूद थे, हमसे सवाल न करते बने,

आज सवाल ही सवाल खड़े हैं, जवाब तो इतिहास में खो गए !

करें अपने ही घावों पर मलहम तो भी तुमको समस्या,

करोगे उसकी ही तरफदारी भले वो कर भी दे हमारी हत्या,

हमारा फलना-फूलना तुम्हारे हिसाब से बहुसंख्यकवाद,

हमारे सोचने-बोलने-लिखने पर है क्यूँ इतना विषाद?

हमारे जीवन काल में जो घटा, उसपर तो चर्चा भी हराम,

पर आपत्ति है अगर मैं पहनूँ भगवा और बोलूँ जय श्री राम,

हम अपने रंग में रंगें, हरिनाम में रमें, तो भक्त!

हमें हीन समझने वाले, तू आया कहाँ से कमबख्त ?

हमारा इतिहास हमें ही काँट-छांट कर पढ़ाने,

हम पर हुए अत्याचारों को बहानों से छिपाने,

अपने हितों की रक्षा हम कैसे करें समझाने,

हर मुद्दे पर हमारी ही त्रुटि बतलाने,

सौहार्द की खातिर एकतरफा कुर्बानियाँ दिलवाने,

तानों पर ताने दे हमें कुंठा तले दबाने,

बात-बात पर दूसरा गाल आगे बढ़ा देना सिखाने,

संसाधनों पर हमारा हक़ नहीं है, हमें यह जताने,

मुझे तो लगता है तू तुष्टिकरण में पूर्ण पारंगत,

छिपाये नहीं छिपती तेरी हमारे प्रति नफरत,

अरे, जब राम और कृष्ण हैं मेरे पथ-प्रदर्शक,

तो रंगे सियार, तू क्यूँ है व्यर्थ ही प्रयासरत ?


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