
नीला आकाश चाहूँ, माँगू जल या प्रकाश की एक किरण रख लूँ?
सारे वारिद भर लूँ झोले में, क्षितिज खोल दूँ?
विस्तार पर फिरा दृष्टि, लेकर लंबी श्वास,
तैर जाऊँ पर्वत माला के पार,
जहां सूर्य और चन्द्र देव करते हैं वास !
पर इधर भी तो स्वप्न विक्रेता,
बने बैठे हैं मत- ग्राहक,
लच्छेदार भाषणों और ऊँचे- लम्बे आश्वासनो
से चुनावी वातावरण है गुंजायमान,
आनंद मंगल तो यहाँ भी मन सकता है !
छप्पर फाड़ कर देने वाली प्रकृति,
नेता छप्पर के ऊपर स्वर्ग स्थापना पर दृढ़-प्रतिज्ञ,
दृश्यों और शब्दों के भंडार खुले हैं,
देखने-सुनने से प्रगति नहीं होगी,
कूदना होगा चुनावी जलाशय में, संभव है तब जा कर कुछ हो सके…….
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