
गाड़ी में बैठकर हम फ़र्र से चल देते हैं । हम और गाड़ी साथ-साथ चलते हैं । गाड़ी हमारे ऊपर और नीचे, हम बीच में दुबके- मौज लेते हुए, सुरक्षित ! सड़क हमारे साथ नहीं चलती । सड़क के कुछ गड्ढे पीछे छूट जाते हैं, और आगे जाकर फिर कहीं और हमसे दोबारा आकर मिलते हैं । गड्ढे में धँसने का और टायर के उछलने का एहसास एक बार हो जाने पर हमेशा साथ रहता है । यह एहसास हमें चेताए और गुदगुदाए, दोनों रखता है ।
सूरज के आगे वाली पहाड़ी तेज़ी से पीछे छूटती जाती है । सूरज के पीछे वाली पहाड़ी अपने साथ-साथ चलती है । सूरज पीछे वाली पहाड़ी पर सवार होकर नहीं, उस पर लुढ़कता हुआ हमारे साथ चलता है । चलते-चलते सूरज अस्त भले हो जाए, पर रुकता नहीं है । क्षितिज पर सूरज न हो और शशि हो, तो वह भी साथ ही चलता है । तारों का कुछ पता नहीं चलता । तारों से भरे आकाश को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो हम मेले में चले आए । मेले में भीड़ का रेला एक साथ सरकता है, पर रुका हुआ-सा प्रतीत होता है । सभी तारे लगभग एक जैसे दिखने के कारण यह कह पाना भी मुश्किल है कि कौन-सा साथ चल रहा है और कौन-सा छिटक गया ।
रास्ते में आने वाले पुल हम पार करते चले जाते हैं । जब तक गाड़ी पुल पर रहती है, पुल उल्टी दिशा में भागता-सा लगता है । पुल को साथ लेकर चल देना देना उचित नहीं जान पड़ता । पेड़ भी विपरीत दिशा में चलते हुए लगते हैं । खेत हमारा पीछा नहीं छोडते । चलते-चलते मौसम बदल जाने पर फसल भले बदल जाये, पर खेत अनवरत साथ चलता रहता है । खेतों, पेड़ों, झोपड़ियों और किसानों की पूरी सेना है – एक जाएगा, दूसरा आएगा । आते-जाते रहेंगे, कभी अदृश्य न होंगे । अन्य वाहनों का कह नहीं सकते- रुककर खड़े हों, तो उल्टे चलते से लगते हैं, और अपनी दिशा में चल रहे हों तो कोई बात ही नहीं । विपरीत दिशा में जा रहे हों तो बहुत आनन- फानन में गायब हो जाते हैं । सूर्य और चंद्र एक साथ नहीं आते । सूर्य के न होने पर चंद्र आएगा ही, और साथ भी चलेगा, ऐसा निश्चित नहीं है । चंद्रमा की अपनी एक चाल है , वह न गति का ग़ुलाम है और न अपने रूप की बाध्यता स्वीकार करता है ।
हमारे विचार हमारे साथ ही चलते हैं, पर पतंग की तरह उड़ते हुए । डोर भले हमारे हाथों में रहे, पर पतंग हवा में गोते फिर भी लगाती ही है । सहयात्रियों के विचार एक साथ नहीं उड़ते , पर एक ही स्थान से उड़ते हैं – एक ही मैदान पर एकत्रित बहुत से बालकों की उड़ती हुई पतंगों की तरह । गाड़ी में साथ बैठे यात्री एक दूसरे के हिसाब से रुके हुए हैं । लेकिन सबका समय अलग कटता है । कोई दो सौ किलोमीटर चलने में दस साल बड़ा हो जाता है, तो किसी अन्य की उम्र एक हफ्ता घट जाती है ।
गाड़ी की उम्र से ज्यादा महत्वपूर्ण गाड़ी का रखरखाव है । सड़क की उम्र टेंडर कब हुआ था और अगला कब होगा -इसपर निर्भर करती है । ठेकेदार के हाथ में कालचक्र है ।सड़कें कभी-कभी तो बनने से पहले ही टूट जाती हैं । कभी बनने के साथ ही चल भी देती हैं और गंतव्य पर सवारी और ठेकेदार की नीयत से पहले ही पहुँच जाती हैं । बिल थोड़ी देर से पहुंचता है । दफ्तर में पहले सफाई होती है, फिर अफसर पहुंचता है, उसके बाद ठेकेदार का आगमन होता है। बिल ठेकेदार के साथ ही चल कर पहुंचता है, उसकी जेब में बैठकर । हर बिल अपनी किस्मत खुद लेकर आता है । अफसर, ठेकेदार, सड़क और गाड़ी की किस्मत इस बिल के साथ चलती हैं । सबके विचार बिल के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं ।
पर यह भी शाश्वत सत्य है कि एक बार जो सड़क बन गयी, तो चाहे उसमे गड्ढे हो जाएँ, ठेकेदार सारा पैसा खाकर उसकी मरम्मत गोल कर जाए, डंबर नदारद हो जाये, बाढ़ के पानी में डूब जाये और सड़क के अवशेष भी न बचें, तब भी गाडियाँ और उनके ड्राईवर उस राह को पक्की सड़क ही मानकर उसपर चलेंगे । जो एक बार बन गयी, और जिसपर यातायात चल चुका, वह सड़क कभी विलुप्त नहीं हो सकती । एक बार जो यात्रा कर ली गयी, उसकी स्मृति युग-युगांतर तक रहेगी ।
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