
बचपन में चींटियों पर बहुत निगाह जाती थी । खड़े हो जाने और लंबे हो निकलने के साथ चींटियाँ दृष्टि से ओझल होती गईं । एक दिन आवारागर्दी कर हॉस्टल लौटे तो बाड़ू बाड़मेरी के खाखरों में सहस्त्रों चींटियों को प्रीतिभोज करते पाया । बाडू ज़ोर से चीखा, “कीड़ियाँ!”, और अपना माथा पकड़ लिया । सभी सयाने कौवों ने बाड़ू द्वारा चींटियों को कीड़ियाँ कहने पर उसका जमकर मखौल उड़ाया ।
समय बीतने के साथ यह जगहँसाई भर्त्स्ना में परिवर्तित हो गई । यूपी-बिहार के अधकचरे भी हिन्दी को अपनी बपौती समझते हैं, बोलते भले उर्दू से उफन रही हिंदुस्तानी हों । भाषा से खिलवाड़ करने के ताने दे-देकर इन शोहदों ने बाड़ू को बहुत त्रास दिया ।
“चीटियों को कीड़ियाँ कहना वैसी ही धृष्टता है, जैसे मेम को अंग्रेज़न कहना”, वह उसे उलाहने देते ।
“मेम भी तो मैम का अपभ्रंश है”, बाड़ू फस जाता ।
“मेम तो इसलिए कह देते थे, क्यूंकी नमक कम खाने से क्षीण हुई जिह्वा पर ठीक से मैम नहीं फिसलता । यह सब नमक पर अधिक कर ठोक देने के दुष्परिणाम थे । गांधी को मैमों की शान में यह गुस्ताखी नागवार गुज़री । इसीलिए सैकड़ों मील चलकर दांडी पहुंचे और नमक कानून तोड़ा” ।
“क्या नमक सस्ता होने पर मेम बोलना बंद हो गया?”, बाड़मेरी पूछ बैठा ।
“एक बार गंदी हुई ज़बान क्या कभी सुधरती है? एक बार हिंदुस्तानी बोलने लग जाइए, फिर हिंदी में नहीं सुभीता । हिन्दी पर उतर आइए फिर संस्कृत की ओर लौट पाना संभव नहीं । जिह्वा का शुद्धिकरण लगभग असंभव कृत्य है । एक बार वह भ्रष्ट हुई तो नित-नयी घिनौनी विसंगतियाँ अंगीकार करती है । गाली- गलौज की आदत पड़ जाये तो कभी छूटते देखी है । अशुद्ध उच्चारण और शब्द प्रयोग करने वाले गलतियाँ बतलाए जाने के बावजूद भी अपने भाषाचरण में सुधार नहीं करते, अपितु नवीन प्रयोगों के नाम पर भाषा को ही चूना लगाने की संभावनाएं तलाशते रहते हैं ।
बचपन की भाषाई त्रुटियाँ बोध हो जाने पर भाषाई विद्रोह बन जाती हैं । और अधिक परिपक्व तथा साधन सम्पन्न होने पर यही विद्रोह महत्वकांक्षा का रूप धारण कर लेता है । तब अशुद्ध आचरण करने वाला भाषा का दायरा ही विस्तृत कर देना चाहता है । बस कोई प्रयोगवादी विद्वान मिल जाये जो उसकी इच्छा को मूर्त रूप दे सके । उसके हिसाब से ‘कीड़ियाँ’ सर्वमान्य होना चाहिए ! ऐसों का बस चले तो शब्द गढ़ने के नाम पर खोटे सिक्के चला दिये जाएँ, रंगे सियार नीले शेर कहलाएँ और चींटियों को कीड़ियाँ बोलने वाले हिन्दी पढ़ाएं!”, ऐसा एक हिन्दी हितवादी मित्र बाडू पर गुर्राया था ।
यह एक पृथक बात है कि कीड़ियाँ अशुद्ध प्रयोग था ही नहीं । हिन्दी के ठेकेदारों को ज्ञान ढेले भर का नहीं था पर आत्मविश्वास सिकंदर सरीखा था । यह तो फिर एक शब्द था , वहाँ तो व्याकरण से जुड़े कई और मूलभूत मतभेद उत्पन्न हुए – “ताला लगा है” या “ताला लग रहा है”? “कपड़े सूखे हैं” अथवा “कपड़े सूख रहे हैं”? क्या सही है और क्या गलत? और क्यूँ ? इन सभी मुद्दों पर बाड़ू और गैर-यूपी/बिहार के छात्रों को गलत पगबाधा आउट करार दे दिया जाता था । मोब लिंचिंग हो जाया करती थी । अंधे कानून का बांस कर दिया जाता था । कॉलेज के वर्षों में हिन्दी शब्दकोश दूर-दूर तक उपलब्ध नहीं था । कभी किसी ने बहुमूक्य इंटरनेट पर शब्दार्थ जाँचने का सोचा भर तक नहीं । यदि किसी ने यह कष्ट उठाया होता तो उसे पता चलता कि न केवल कीड़ियाँ, अपितु पिपीलिका भी चींटियों का ही पर्याय है । इस नाम से बांग्लादेश का पहला इंटरनेट सर्च इंजन बना था , और इसका अर्थ पता लगाने हेतु ही जब मैंने पिपीलिका पर सर्च मारा तो ‘कीड़ियों’ की सच्चाई उजागर हुई ।
बाड़ू के ठोस ज्ञान और उस से भी अधिक ठोस छाती के लिए अगाध श्रद्धा उत्पन्न हुई । तब गेलिए बाड़ू के बारे में सोचकर मुझे गेलीलिओ गेलिली का ख्याल आया । अब चींटियाँ दिख जाती हैं तो मैं उन्हें कीड़ियाँ बुलाता हूँ, और अगर कोई सुन रहा हो तो उसे पिपीलिका पर्याय के बारे में भी बताता हूँ ।
अंत में बस इतना ही कहूँगा – मित्रों, स्वघोषित भाषाई विशेषज्ञों और परम विद्वानों पर भले भरोसा कीजिये , पर जैसा की रूसी हमेशा कहते हैं – ट्रस्ट, बट वेरिफ़ाय!
(भाषा पर ब्लॉग लिखते हुए रूसी कहावत को अङ्ग्रेज़ी में लिख देना मुझे स्टालिन और विजयलक्ष्मी पंडित संवाद की याद दिलाता है-
Vijaya Lakshmi Pandit in Conversation with Three World Leaders
https://www.youtube.com/watch?v=DRZK499CFIs&t=20s )
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गलत उच्चरण
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किसका
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किडिया
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किसी की भाषा ही वेसी होती आपको नहीं कहा
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