पूंजापति के बहाने राजा पूंजा का अपमान, गूँजापति तुम कैसे निकले इतने महान (व्यंग्य)

विद्वान जी को दुनिया भर का ज्ञान है । डंके की चोट पर कहते फिरते है कि उपनिषद पढे हैं । गंभीर व्यक्ति इस तरह अपने मोरपंख नहीं फैलाता । विद्वान महाशय टर्राते भी हैं, तो दुनिया को प्यार करने का, गले लगाने का और मानवता का निःशुल्क संदेश दे जाते हैं । आजकल हिन्दू और हिन्दुत्व पर कथा बाँच रहे हैं । गला फाड़ गर्दभ स्वर में देश के हिन्दू को ही पकड़कर , झिंझोड़कर यह बतलाया जा रहा है कि भैया, तुम हिन्दू हो, हिन्दुत्ववादी नहीं क्यूंकी हिंदुत्ववादी तो छूरा घोंप देने वाला उग्रवादी है, हिंसक पशु है ।

वैसे हिन्दुत्ववादी नाम की कोई चिड़िया नहीं होती । जिस हिन्दू के तन-मन में धर्म स्थापित है, वह हिन्दुत्व का पोषक है । जिसमें नहीं है , वह सयाना कौवा है पतित है , धिम्मी है, धर्मच्युत है, हिन्दूविरोधी है और अनर्गल विद्वता झाड़ कर आपको पथभ्रष्ट करना चाह रहा है  । बात इतनी सी ही है । शूल फिल्म का वह प्रसंग स्मरण होता है जब बिहारी विधायक भय्याजी का चरित्र निभा रहे सैयाजी शिंदे विधानसभा में अपनी आवाज़ बुलंद करके कहते हैं कि अगर पानी से बिजली निकाल ली जाएगी तो सिंचाई के लिए किसान के पास बचेगा ही क्या? हिन्दुत्व विद्धुत ऊर्जा है, सनातन जल है जिसमें ऊर्जा निहित है । दोनों भला पृथक हो सकते हैं कभी ?

गांधी के चलते बुद्ध और जिस्सू की दयालुता और सहनशीलता हिन्दू पर बेवजह थोप दी जाती है । भारतवर्ष को धर्मशाला बनाए रखने , और उसमे हिन्दू को सेवक की भूमिका पर टिकाये रखने के दिन अब लद गए । भारत आकर शासन करने वाले तुर्क-मुग़ल-अफगन अब बलात्कारी लुटेरे, और अंग्रेज़ धोखेबाज़ ‘पूँजापति’ ही समझे जाते हैं । हिन्दू भ्राता को भ्राता से लड़ाने के प्रयासों की भर्त्स्ना होनी चाहिए । वैसे हिन्दी आए न आए, इतना ध्यान तो रखा जाये कि जब छाती पर पीछे से वार होता है तो पीठ पर पड़ता है । बुद्धि जब घास चरने लगती है तो बकरी बन जाती है । उम्र बढ़ने के साथ परिपक्वता अगर बढ़ नहीं रही, तो घटने लगती है । विषैला सर्प विश्व में गरल ही फैला सकता है । मंच पर चढ़ा मंदबुद्धि समाज के लिए घातक है । जो सब धर्मों का है वह किसी का नहीं । मेरी पहचान और सनातन को धिक्कारनेवाला मेरा रिपु ही हो सकता है ।

भाषानुशासन के अभाव में मनुष्य तोता-भर है ।  भाषा प्रयोग में बार-बार त्रुटियाँ कर रहे हों तो क्षमा मांग लेना श्रेयस्कर है। हिन्दी की टांग तोड़ने का अधिकार तो आपको है, पर उसे चोट पहुंचाकर चिकित्सालय तो पहुंचाइए ! चंगेज़ खान का युग समाप्त हुआ, जनता आपका वही हश्र करेगी जो आप हिन्दी और सनातन का करना चाहते हैं ।

आजकल पूंजापति, पूंजापति बहुत सुन रहा हूँ । अशुद्ध उच्चारण हुए पर्याप्त समय व्यतीत हो गया है पर वक्ता ने अभी तक क्षमा नहीं मांगी है । मदोन्मत्त मण्डूपद कभी सार्थक ज्ञानोपार्जन नहीं कर सकता । सेवक-चाकर भी इस गूँजापति के अगल बगल खड़े सुनते रहते हैं, कोई उसे टोकने की हिमाकत नहीं करता । पूंजापति की रट लगाकर इस मूढ़मति ने राजा पूंजा भील का घोर अपमान किया गया । जनाक्रोश फैलना अवश्यंभावी है और शायद समय की पुकार भी ।

चलो माना कि स्वघोषित विद्वान को राणा पूंजा भील के विषय में ज्ञान नहीं होगा , पर राजस्थान के सहायकों  को तो भान होगा ? फिसल रहे हल्दीघाटी के युद्ध में दस हज़ार की सेना संग कूद पड़े पूंजा ने अगले बीस साल महाराणा प्रताप के साथ मिलकर अकबर से लड़ने में ही काट दिये । चाहे प्रताप के वन प्रवास हों या भविष्य में किलों पर किए हमले, पूंजा सदैव ही प्रताप के साथ लड़े । गूंजापति को सोच-समझ कर गूंजना चाहिए था । वैसे खाली पांडालों में थोथे चनों के बजने की गूंज बहुत भारी होती है ।

कभी हिन्दू, कभी हिन्दुत्व, फिर मन हो जाये तो सावरकर और राणा पूंजा की छातियों पर पीछे से वार, कोई तो बंद करवाओ यह अत्याचार  – क्या कीजिएगा जब तारण हार ही बन बैठे ‘बुल इन ए चाइना शॉप’ ।


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