(लिखी अगस्त की उस शाम जिसकी अगली सुबह भोपाल निकलना था)




भीगी-भीगी फुहारें
गिरती-रुकती पुकारें
भूले-बिसरे दिन
इस शहर के
जो अब छूट रहा है ।
ठंडी-ठंडी मानसूनी हवा
चीरती मेरे हृदय को
दस्तक देती
स्मरण कराती
उस रिश्ते को
जो अब टूट रहा है ।
हल्की बारिश में
क्या गीला, क्या सूखा
छत पर भ्रमण करता
ताकता उन गलियों को
जो कल तक थीं अपनी
आज लगती हैं पराई ।
कल तक यह मेरा घर था
अब बस एक फ्लेट है
हर पेड़ पड़ोसी, गली का कुत्ता,
सामने वाले घर की बिल्ली
छत वाले कबूतरों के नाम थे
कौवों के भी
नाम – मेरे दिये हुए
मैं चला, और ये जीवन फिर अनाम ।
ये चौराहा, वो ब्लॉक
बिग बाज़ार, सेंट्रल पार्क
माँ फ़्लाईओवर, चाय की दुकान
बंछाराम के मीठे पकवान
उस मकान वाला शीमुल
मोड़ वाला पीला पलाश
पेड़-पौधे, फूल-पत्ती
यहाँ चल, वहाँ तलाश
पाँच साल मनाई दुर्गा पूजा
बिसोर्जन अब फिर दशहरा होगा
आ को ओ कहने की अदा खत्म
हर दादा अब पुनः भैया होगा ।
शहर छोड़ देने से कहाँ नाते धुलते हैं
थोड़ी हवा, थोड़ा पानी हममें बचे रहते हैं,
अंदर जाती सांस में भले केवल वर्तमान हो,
बाहर निकलती में हर वो पल है जो कभी रुका था ।
मैं अपने को समझाता हूँ
शहर भी खुद को दिलासा देता होगा
सरकारी नौकर सिवाय सरकार के
किसी और के नहीं हुआ करते
हमारे बस साल बीतते हैं
अपार जमा होती जाती है
(काश यहाँ पेंशन लिख पाता )
ऑर्डर जारी होते हैं
सेवा देने की जगह बदलती है
तबीयत रमाना हमारे काम का हिस्सा नहीं
रमी तबियत को सरकार पाले ऐसा कोई किस्सा नहीं ।
कुलमिलाकर हौंसला यही है
कि मेरे अंदर का यह शहर
मेरा एहसास बनकर रहेगा
और मेरा बिताया समय इस क्षेत्र में
इतिहास बनकर जिएगा ।
मुलाक़ात कभी हुई तो
मकान-मालिक, किरायादार की नहीं
आशिकों की नहीं
न ही रिश्तेदारों की
बल्कि दो अज़ीज़ दोस्तों की होगी-
मैं जब भटकता था तो तेरी गलियों में मिलता था
तेरी गलियाँ भी रास्ता भूल मुझ तक ही हैं पहुँचती ।

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#शहर
बहुत सुंदर प्रस्तुति
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