दीपावली पर अवांछित मनन-चिंतन

पूजा के सिंगाड़े कल रात ही निपटा दिये थे । गुलाब जामुन धरे रह गए । जीवन ऐसे ही धरा रह जाता है । आदमी गुलाबजामुन को बचाए रख कर पहले सिंगाड़े चरता है । लक्ष्मी पूजा में ईख का जोड़ा भी रखा था । ईख अभी भी लक्ष्मी के इर्द-गिर्द खड़ी हैं । बचे हुए पटाखे भी यूंही पड़े हैं । खूब फोड़े, बहुत चलाये – इस जतन में कि शायद खबर बन जाये । खबर कभी अच्छी नहीं बनती । अखबारों में फिर भी कभी-कभार कुछ उत्साहवर्धक समाचार या इश्तेहार छप जाया करते थे, टीवी और इंटरनेट पर केवल मनहूसियत चलती है । हिन्दू तीज-त्योहारों पर मनहूसियत का अपना एक मार्केट है । ज्ञान बांटने वालों की फेहरिस्त लंबी है । इस देश का हर व्यक्ति मन से एक गुरु है । उसे सर्वोत्तम मार्ग दिखाने की चुल्ल है । लेकिन देश के हर व्यक्ति के अंदर एक उत्पाती, शरारती, पाजी शिष्य भी छिपा है, जिसकी पुंछ टेढ़ी है और टेढ़ी ही रहेगी । जाने कितने ज्ञानविद, संविधानविद, नेहरू-गांधी, मुल्ले-पादरी आए-गए हो गए – कुछ तो बात होगी हम में कि हस्ती हमारी मिटती नहीं और थाली कभी भरती नहीं । उत्सवों पर रंग उड़ेलने, पटाखे फोड़ने, पतंग काटने, पुतले जलाने जैसी भांति-भांति की उन्मुक्त, उजड्ड क्रियाएँ कहाँ अन्य किसी धर्म के लोग कर पाते हैं ? बकरे काटने और ब्रेड-शराब सेवन से ज्यादा कोई सोच भी नहीं पाया !

कल पूजा के उपरांत, शयन से पूर्व हमने अपने सुंदर परिधान उतार दिये । उन्हें घड़ी करके वार्डरोब में चढ़ा दिया । अब वे आराम से अंदर ही दुबके रहेंगे । जबकि आने वाली सर्दियों में हम ठिठुरते हुए यहाँ-वहाँ डोलेंगे । रज़ाई- कंबलों के भी मज़े हैं । दिन-रात बिस्तर पर पड़े रहना है । नींद में ऊँघते रहो, कोई टोकने वाला नहीं । रज़ाई तो काम करते समय भी सोती है । साधन-संसाधन ज्यादा आनंद में हैं, मनुष्य आपा-धापी का शिकार है । रंगोली के गणेश जी घर के बाहर तैनात हैं । भूख लगने पर कौन उन्हें लड्डू परोसेगा ? रख देने पर भी वो कौन सा उसे खा ही पाएंगे । चूहे-चींटियाँ चपल हैं – भोग लगाने के बहाने सब चट कर जाएंगे । बेहतर है जो जहां है वह वहीं रहे और जितना मिल रहा है उसमें ही निर्वाह करे । उतरे कपड़े अलमारी में और रंगोली के गणेश जी धरा पर ही शोभा देते हैं । न हर बार वस्त्रों की ड्रायक्लीनिंग संभव है, न ही गणपति की पेट-पूजा की व्यवस्था ।

सुबह की अज़ान हुई । मुर्गों की नींद खराब हुई । मॉडर्न मुर्गे पक्की नींद सोते हैं । कभी तो काट दिये जाने के बाद उठ पाते हैं, कभी पकाए जाने के । एक बार एक मुर्गा चबाये जाने के बाद पेट में जागा । मरी-सी बांग देकर उसने पेटवाले से इल्तजा की कि अब उसकी निकासी नहला-धुलाकर ही की जाये , उसके बिना बिलकुल नहीं । पेटवाले ने डकार लेना उचित समझा । चुनाव आसपास नहीं थे , मुर्गे की फिलहाल कोई ज़रूरत नहीं थी । मुर्गा पचा लिया गया । अब सुबह की अज़ान उसकी नींद खराब नहीं कर पाएगी ।

प्रातः कालीन भ्रमण के लिए निकला । सवेरे की हवा में रात का धुआँ विद्यमान था । यह धुआँ भारतीय आत्मसम्मान के जीवित होने की गवाही दे रहा था । गलियों-सड़कों में कल रात फोड़े गए बम-पटाखों की सुतलियाँ और कागज़ छितराए पड़े थे । कचरा मत कहिए, ये बुद्धिजीवियों के कलुषित अहंकार की अंतड़ियाँ और हड्डियाँ थीं ।  बस्ती के बच्चे इनमें बिनफूटे पटाखे ढूंढ रहे थे । कुत्ते कल रात भटक नहीं पाये थे , इसलिए भूखे थे और ज्यादा सो लिए थे । आज सुबह अलसाने के बजाय अत्यधिक व्यस्त से दिख रहे थे और इस अहंकार को सूंघे जा रहे थे । बुद्धिजीवियों की आस्तियों में मज्जा नहीं होती , इसलिए यहाँ कुत्तों की क्षुधा शांत नहीं होगी । वैसे प्रातः उठ जाने से सभी कार्य यथोचित समय पर हो जाते हैं । जले पटाखों को सूंघकर कुत्तों ने सीख ली कि भूख, प्यास, हवस, धर्म और चाहत को इतना मत दबाओ कि विद्रोह ही हो जाये । मुझे भी यह समझ आ गया कि कैसे सभ्यता की रक्षा हिंसक और असभ्य होकर ही की जा सकती है ।  


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  1. Harbans says:

    HAPPY DIWALI. NICE SHARING.😀😀

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