
रश्मिका मंदाना गिनती ही भूल जाती है । तीन से चार तक आने में तीन दशमलव एक-दो-तीन हो जाती है । क्या है कि कमसिन कन्या की नज़र विकी कौशल के कच्छा स्ट्रेप पर पड़कर वहीं अटक गयी है- एकदम संज्ञा शून्य स्थिति । तानसेन को राग टोढ़ी गाता सुनकर मृग समूह जैसे कभी मंत्रमुग्ध हो गया था । तानसेन ने हिरण के गले में माला डाल दी थी जिसे लेकर ससुरा जंगल भाग निकला था । रश्मिका का मन भी स्ट्रेप देखकर ओले-ओले दिल मेरा डोले हो जाता है ।
“खुद का ही भान नहीं, अब मेरा कोई मान नहीं ……”
विकी शोहदा अपनी बंद आँखों में से एक को खोलकर जब्बर उफन रही रश्मिका का कांटा खींच कर दशमलव तीन से चार पर लाता है- नैन मिल जहिएं…..तो मनवा माँ कसक होई बे करी ….। जब स्ट्रेप पर फिसल गई मतवाली , तो जाँघिया दर्शन का आलम क्या होगा ?
चड्ढी का ब्रेन्ड बहुत धान्सू है – अमूल माचो । इसे ही खरीदना और पहनना चाहिए – आखिर इसकी चड्ढियाँ विपरीत लिंग को सम्मोहित करने की क्षमता रखती है । नाड़े वाले कच्छे के बाद , जो अपने होने का आवाहन अपने लटकते नाड़े से कर देता था , माचो सबसे ज्यादा मेसक्यूलिन ब्रांड प्रतीत होता है । कहीं-कहीं पर सांभर के सींग, बाघ के टट्टे या कुछ पेड़ों की छाल कामोद्दीपक के तौर पर इस्तेमाल होते हैं, अब लगता है आमूल माचो भी इन अफ्रोडिजिएक की फेहरिस्त में शामिल हो सकता है । ज़रा सोचिए लाखों-करोड़ों में खेलने वाली रश्मिका ही अगर गिनती में अटक जाय तो कच्छे के इर्द-गिर्द क्या ही उत्तेजक माहौल बना होगा । कुछ-कुछ इलेक्ट्रोमेग्नेटिक फील्ड की तरह ! ऐसी ही सम्मोहक अंगूठियों के इश्तेहार पब्लिक मूत्रालय के ऊपर पढने को मिला करते हैं ।
वैसे माचो एक ऐसे नवीन फेशन ट्रेंड को प्रोमोट कर रहा है जो तरोताज़ा कर देने वाला है । अब से लौंडे- लपाड़ी अपने कच्छे के स्ट्रेप्स को स्ट्रेटेजिकली एक्स्पोज़ किया करेंगे । थैंक्स माचो, विकी-रश्मि और एड निर्माता जी ! ध्यान देने योग्य है कि माचो दिखाने में कम और छुपाने में अधिक उत्सुक है । तभी तो सिर्फ स्ट्रेप पर रुक गया । वरना लक्स कोज़ी के लीचड़ों की भांति खेत खुल्ला ही कर देता । कौशल की बॉडी चंपू धवन से तो बेहतर ही होगी । अर्धनग्न कुली नंबर वन वरुण धवन को देख-देखकर अधेड़ महिलाएं ठरकी जा रहीं हैं , कि तभी एक बला-सी कमसिन भाभी एक गीले कच्छे को ऐसे तीव्र वेग से झटकारती है कि वरुण का तौलिया खुलकर नीचे गिर पड़ता है । गीला और वरुण का सूखा कच्छा दोनों ही लक्ष कोज़ी हैं ।
“शटर खुला तो उसके सामान का दीदार हुआ….लगा ऐसा मानो हम कसाई की दुकान पर लटके बकरे के पार्ट्स को निहार रहे हैं” ।

एड में अब वरुण पौन-नंगा है – मात्र लक्स कोज़ी कच्छा से पार्ट्स ढके हुए । सहसत्रों भाभियाँ उसे ताड़ रही हैं । अपनी झेंप मिटाने हेतु वरुण चलकर जाने तैरकर कमसिन भाभी तक पहुँचने का स्वांग भर रहा है । माहौल टोटल सड़कछाप है !
इन दोनों एड्स ने कला के क्षेत्र में कुछ नए आयाम खोल दिये हैं । अब अधोवस्त्रों के विज्ञापनों में देसी फूहड़ता का जोरदार तड़का लगा है । वरना चड्ढियो, ब्रा-पेंटी, डियो और कंडोम के विज्ञापनों में मादक अङ्ग्रेज़ी संगीत पर थिरकते विदेशी मॉडेल्स को दर्शाया जाता था । और हम सोचते रह जाते थे कि ये किसी स्वप्नलोक के वाशिंदे हैं , जिन्हें इन साधारण वस्तुओं की आवश्यकता ही क्या है ? हाँ सलमान-अक्षय ने बनियानों का देसीकरण पहले ही कर डाला है। अब वरुण- विकी ने इस मिथक को तोड़कर एक नई परिपाटी चलाई है । साथ ही हमें यह भी स्पष्ट जाता दिया है कि पुरुषों का वस्तुकरण बिना किसी लाग-लपेट के पूरी निर्लज्जता के साथ किया जा सकता है ।
समानता के ठेकेदारों को दोनों विज्ञापन बहुत-बहुत मुबारक हों ! हर व्यसन की तरह यहाँ भी लीड-बाय-एग्ज़ामपाल करने के लिए उर्दूवुड का तहेदिल से शुक्रिया ।
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