रेलगाड़ी से तो कुकुर भलो  (वैचारिक यायावरी)

पल भर के लिए इस चित्र को निहारिए । मदोन्मत्त द्रुतवाहिनी, लौहपथगामिनी, छुकछुककारिणी सुदूर सुनसान में धुआँ उड़ाए कहीं से कहीं सरपट भागे जा रही है । क्या कहा कि न गति दिखती है, न ही छुकछुक सुनाई देती है ? संभव है इसलिए कि कल्पना और उमंग उड़ान भरती हैं, रेल की पटरी पर नहीं चलतीं !

वैसे दौड़ना-भागना, मानचित्र पर रेंकना और सवारी-सामान ढोते रहना ही इसका कर्म है । रेलगाड़ी का कोई गंतव्य नहीं होता, सवारी और माल-असबाब का होता है । रेलगाड़ी तो महज़ अप-डाउन करती है- अप और डाउन, अप-डाउन, अपडाउन । मसलन गरीब रथ 12203 अप, 12204 डाउन ।  

सवारियाँ चढ़ती हैं, सफर करती हैं उतर जाती हैं । कोई रिश्ता नहीं बनता । अमुक रेलगाड़ी गरीब रथ 12203 अप से कोई प्रीत नहीं लगाता । प्रेम होता है यायावरी से, सह-यात्रियों से । मेरे सामने वाली खिड़की में बैठी युवती से, सवाई माधोपुर स्टेशन पर मिलने वाली दाल की पकौड़ी से । आते जाते पहाड़ों से, खेतों से, गांवों से । माल भी लदता है, और उतरता ही है । मालवाहक में बस जाने के लिए उसे नहीं चढ़ाया जाता । रेलगाड़ी कोई हिस्सा नहीं रखती, कुछ नहीं बसाती । उसे अनवरत चलते जाना है, इसलिए गृहस्थी नहीं फैलाती ।

लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि वह खानाबदोश है । कदापि नहीं । अप हो या डाउन, मार्ग निर्धारित है । कहाँ से चाय चढ़ेगी, कहाँ से खाना, ये भी मोटे तौर पर तय ही है । ऐसा नहीं है कि ट्रेन को मौजी आई तो राह चलते सुस्ता ली, या कोई नज़ारा पसंद आ गया तो ठहर कर बीड़ी सुलगा ली और चार काश खींच लिए । वैसे भी अब धूम्रपान के खिलाफ माहौल है । शायद इसीलिए रेलगाड़ियों ने भाप के इंजनों को लगभग तिलांजलि दे दी है ।

धरा पर एक लकीर खेञ्च दी गयी है, उसी पर चलना है । बगल की पगडंडी उसे लुभा नहीं सकती । कोई भी परिस्थिति उसे डिगा नहीं सकती । डगमगाये तो खतरे का सायरन ! अजी ग़ुलाम है , आदमी की कह लो, प्रद्योगिकी की समझ लो चाहे सारिणी की – चाहे जितनी भव्य, बलशाली और मत्त जान पड़े, द्रुतवाहिनी-लौहपथगामिनी-छुकछुककारिणी एक ग़ुलाम भर है ।

इससे तो फिर कुत्ते भले । पालतू वाले नहीं ,  वह तो बेचारे टोमी हैं, कैदी हैं। आवारा कुत्ते के अथवा रेलजीवन में से एक चुनना हो, तो मैं पहले वाला ही अधिक पसंद करूंगा । रेलगाड़ियों को लोग भले पत्थर नहीं मारा करते, पर रेलरोको तो करते हैं । दुरदुराए और लतियाए जाने से कहीं अधिक बदनसीबी आंदोलनजीवियों द्वारा रोक दिये जाने में है । आवारे कुत्ते की भला  ड्यूटिपाबंद  रेलगाड़ी से क्या तुलना ? एक पिछला पैर उठाकर कहीं भी सिंचाई करने को स्वतंत्र है, दूसरी का पहिया ज़रा-भर उठा या सरका नहीं, कि हाय, त्रासदी ! और फिर रेलगाड़ी-रेलगाड़ी में प्रेमलीला भी कहाँ संभव है ?

आप सोच रहे होंगे कुत्ते से ही क्यूँ, चिड़िया से तुलना क्यूँ नहीं की?  तो महोदय, चिड़िया का मुक्काला-मुक्काबला विमान से होगा । रेल तो सही माने में पालतू ऊंट, गधे या टट्टू से ज्यादा कुछ नहीं, सड़क का कुत्ता तो फिर उच्छृंखलता का द्योतक है । कहाँ पंछी की बात करते हैं, उनकी क्लास ही अलग है । रौबदार,शानदार, दमदार भले हो, चूंकि ट्रेन अपनी मर्ज़ी की मालिक नहीं, इसलिए मेरी नज़र में तो गिंडोले से अधिक प्रभावी नहीं ।


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