तूफान के पटकथा लेखक अंजुम राजबली के पास बहुत अनुभव है – पुकार, अपहरण, राजनीति, ग़ुलाम, कच्चे धागे, लेजेंड ऑफ भगत सिंह और अन्य बड़ी फिल्मों में काम किया है । इस अनुभव का इस्तेमाल उन्होने तूफान की पटकथा को बड़ी चालाकी से लिखने में किया है । बिना किसी कारण या आवश्यकता के कहानी में हिन्दू बनाम मुस्लिम डाल दिया, लव जिहाद को मेनस्ट्रीम कर दिया, इस्लामोफोबिया घुसेड़ दिया, और सारा किया-कराया एक डॉक्टर हिन्दू लड़की और उसके गॉडफीयरिंग बाप के मत्थे मढ़ दिया । ये होती है मास्टर अजेंडा-सेटिंग ! आल हिज़ बॉक्सेज़ गेट टिक्ड, एंड यू कांट ईवन फ़ाइंड टेक्निकल फ्ला ओर टेक हिम टू कोर्ट ।
जफर भाई ( विजय राज़) को जब अज़ीज़ अली (फरहान अख्तर) डोंगरी की किसी गंदी नाली में पड़ा मिला था, तब उसे चूहे कुतर रहे थे । जफर भाई ने अपना बोन मेरो देकर उसकी जान बचाई, पाला-पोसा, बड़ा किया, वसूली के धंधे में लगाया । फिर राह चलते, ताकते-झाँकते, हड्डियाँ तोड़ते-तुड़वातेही अज़ीज़ बोक्सिंग के फेर मे पड़ गया । इसी दौरान वह एक सुकन्या से मिला जिसने उसके शौक को पंख दिये और बदले में अज़ीज़ मियां को अपना दिल दे बैठी । लेखक ने स्पष्ट किया है कि दिल का सौदा आगे बढ़ कर हिन्दू लड़की ने किया, बेचारे अज़ीज़ मियां को तो उसकी चाहत का इल्म भी न हुआ ।
सुकन्या का रोल निभाया है मृणाल ठाकुर ने , जो अनारदाने-सी खूबसूरत है और फिल्म में डॉक्टर का किरदार निभा रही है । सुकन्या ही उसे सुझाती है (वह पहले भी नाना प्रभु की तारीफ़ें सुन चुका था) कि अमुक कोच से मुक्केबाज़ी सीखो, तुम्हारा करियर बना देंगे । यह कोच हैं नाना प्रभु (परेश भाई रावल), जिसके नाम का डंका अक्खी मुंबई में बजता है , और जो सुकन्या का बदनसीब बाप है । सुकन्या ने यह अहम बात अज़ीज़ अली से क्यूँ छिपाई, यह क्लीयर नहीं है । हनुमान-भक्त नाना जी एक जोशीले ट्रेनर हैं । एक बम ब्लास्ट में उन्होने अपनी पत्नी को खो दिया था । तभी से उन्हें ‘अकारण’ मुसलमान लौंडों से कुछ समस्या सी हो गई है। उन्हें लांडिए कहकर बुलाते हैं और उनकी आवारा, मवाली हरकतों से चिढ़ते हैं । छि, दिल में इतनी नफरत! हा, शोक !
नाना प्रभु छंटे हुए नफरती साबित हुए हैं क्यूंकी अपनी इलकौती बेटी के लिए उन्हें कोई ‘लांडिया’ (मेरा शब्द नहीं, अंजुम राजबली का) दामाद उनके सपनों में नहीं पलता । हिन्दू लड़की को लेकिन वहीच मांगता है ! सब कुछ किनारे रख कर उसे अज़ीज़ से ही प्यार करना है, क्यूंकी वह उसके अनाथ होने और अनाथों से प्रेम करने को बेहद तवज्जो देती है । बॉक्सर अज़ीज़ में जब नानाजी को संभावनाएं दिखती हैं, लगता है कि यह लड़का कुछ करना चाहता है, कुछ बनना चाहता है, और कर सकता है,तो वह उसे अपने जिमखाना में ट्रेनिंग का मौका देते हैं । उसे एक बॉक्सर के तौर पर स्वीकारते हैं, सिखाते हैं, समझाते हैं, लेकिन दामाद चुनना एक बिलकुल ही अलग सवाल है । नानाजी एक रीज़नेबल शहरी न दिखाई पड़ जाएँ, इसलिए उनपर ज़बरदस्ती धर्मांधता थोपना ज़रूरी है। इसी वजह से उन्हें मुस्लिम होटल की बजाय पारसी होटल से खाना मंगाने की ज़िद करते दिखा दिया है । बात कुछ पचती नहीं है राकेश मेहरा और अंजुम राजबली – जो आदमी एक वसूलबाज़ गुंडे को बॉक्सिंग सीखा रहा है, यह जानते हुए भी कि वह एक मुसलमान है, वह एक बेहतर होटल की बिरयानी क्यूँ नहीं चखेगा ? बॉक्सिंग इसलिए सीखा रहे हैं ताकि अज़ीज़ सेट हो जाये , और एक चलते हुए होटल से इसलिए चिढ़ेंगे क्यूंकी वह सेट है ? इसी विरोधाभास पर आकर फिल्म बनाने वालों का अजेंडा एक्सपोज हो जाता है ।
खैर इस दौरान लेडी डॉक्टर को बॉक्सर भाई से बेइंतहा मोहब्बत हो जाती है । अज़ीज़ मियां स्टेट चेंप बन जाता है । कोच साहब और शागिर्द दारू पीने बैठते हैं तो वहाँ खुलासा होता है मियां साहब की माशूका तो कोच साहब की ही बेटी है । बेचारा अज़ीज़ न सिर्फ झापड़ खाता है, बल्कि स्तब्ध भी रह जाता है । खुद को ठगा हुआ महसूस करता है । सुकन्या ने ऐसा धोखा उसके साथ क्यूँ किया? नानाजी को ठीक ही लगता है कि डायन भी सात घर छोडकर हाथ मारती है, पर लांडिए को उन्हीं का घर मिला । जिसने अपनी बीबी को इस्लामिक आतंकवाद की वजह से खोया हो, उसमें थोड़ी-बहुत टीस तो लाज़मी है । और फिर अज़ीज़ मियां सड़कछाप हैं, भले बॉक्सर हों, और बेटी तो पढ़ी-लिखी है, डॉक्टर है !
पर हवस में बाप-बाप नहीं दिखता, बिगोट हो जाता है ! बेटी रातोंरात घर छोड़ देती है, मुक्केबाज़ कोच को टाटा-बायबाय कर देता हैं । ऐसा नहीं है कि चोईस नहीं है । गुरु के प्रति सम्मान होता तो अज़ीज़, जो अब तूफान हो चुका है, सुकन्या से रिश्ता तोड़ लेता या कमसेकम रिश्ते को बर्फ की सिल्ली पर डाल देता । बेटी को बाप की फिक्र होती तो गरम मुद्दे को ठंडा पड़ने देती । आखिर प्यार आते-जाते रहते हैं, पर गुरु और बाप नहीं । पर यहाँ तो लड़की चाहती है बाप तुरंत ही झुक सिजदाह कर दे !
खैर बहुत जल्दी अज़ीज़ मियां अपनी असलियत दिखा देते हैं, और पहला मौका मिलते ही बॉक्सिंग मुक़ाबला फिक्स कर लेते हैं । ऑफ कोर्स ये सब वह अपनी माशूका को शानदार फ्लेट में रखने के लिए करते हैं । हर चोर परिवार के नाम पर ही रसीद फाड़ता है , इसमे नया क्या है । खैर जिसने जफर भाई को छोड़ा, कोच को छोड़ा, वह बॉक्सिंग का सगा कैसे होता ? लेकिन खेल का नसीब बढ़िया है । चोर पकड़ा जाता है । बॉक्सर पर पाँच वर्ष का प्रतिबंध लग जाता है ।
पाँच साल गुजरते हैं, अज़ीज़ मियां अब ट्रैवल एजेंसी चलाते हैं । बीबी चाहती है वह पुनः बॉक्सिंग करें । इसी दौरान एक रेलवे पुल गिरने से हुई भगदड़ में सुकन्या की मौत हो जाती है । यहाँ गजब का सबटेक्स्ट है । यह नोर्मलाइज करने की कोशिश के गई है कि जैसे आप जिहादी हमले में मर सकते हैं, बॉम ब्लास्ट में उड़ सकते हैं वैसे ही पुल गिरने या सड़क दुर्घटना में भी मर सकते हैं । सब कुछ एक जैसा ही हैं, एकदम रेंडम, टोटली बाय चांस ! जिहादी हिंसा का शिकार होने पर बुरा नहीं मानना चाहिए । कहने को यह एक कहानी है , नाना प्रभु महज एक किरदार है , और जैसा दिखाया है,ऐसा कुछ होता भी है और हो सकता है । लेकिन ईंटेंट साफ है । बाय चांस भी वही सब होगा जो तथाकथित लिबरल – लेफ्ट ब्रिगेड होते देखना चाहती है और आपने विरोध में मुंह भी खोला, अपनी बात रखने की कोशिश भी की – तो आप क्या हुए ? बिगोट । भक्त । सांप्रदायिक ।
फिल्म में बॉक्सिंग अच्छे से फिल्मायी गयी है । फरहान का अभिनय बढ़िया है । मृणाल बहुत हसीन लगी हैं । विजय राज़ और मोहन अगाशे कभी बेहतरीन से कम प्रदर्शन करते ही नहीं हैं । दर्शन कुमार और सुप्रिया पाठक मे भी ठीक काम किया है । पर परेश रावल को क्या हुआ है ? अभिनय श्रेष्ठ कोटी का है , पर ऐसा इस्लामोफोबिक किरदार करने की क्या आवश्यकता थी, जो हिंदुओं को सर्वथा गलत रोशनी में दर्शा रहा है? खैर, पैसे के लिए उर्दूवुड का अभिनेता क्या कुछ न कर डाले !
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