दिन में अमिश रहता हूँ, रात को रवीश हो जाता हूँ

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रो-जर फेडरर को हार और जीत पर फूट-फूट कर रोते देखा है। स्वयं बाबा ने भी सदन में आँसू बहाये हैं। वधु की विदाई के समय बहुत से वरों के नेत्र सजल होते देखे हैं । सेकंड वेव ने ऐसा विध्वंस मचाया कि प्रधान जी की आँखेँ भी डबडबा गईं । लेकिन रोना-रोना तो रवीश का , बाकी सब महज खानापूर्ति है ।

दिन भर मैं अमिश रहता हूँ, रात को रवीश हो जाता हूँ । दिन में दुनिया से लड़ने के लिए मूढ़ छद्म उत्साह चाहिए । तत्वहीन सांसरिक कार्यों को सम्पूर्ण करना है एवं घर-दफ्तर झेलने हैं तो मुट्ठियाँ भींच, नथुने फुला और उछल-उछल कर कर शब्द प्रहार ! साँय होते होते मन शिथिल सा हो जाता है । देश-समाज के दुख-दर्द मेरे मर्म को बींधने लगते हैं । जाति-धर्म के सवाल उठ खड़े होते हैं । मुख मलिन हो जाता है । बुद्धि घास चरने चले जाती है । गणित एवं तर्क से डर लगने लगता है । ब्लेम इन्स्टिंक्ट उफ़ान पर होती है । मुग़लों, अंग्रेजों और नेहरू की बड़ी याद सताती है ।  सामने बैठे व्यक्ति को लगने लगता है कि आँसू अब टपके, बस ये टपके – पर मजाल है ! सिर्फ झूठ, दुष्प्रचार और अज्ञान टपकाता हूँ । सूखा रोना – आवाज़ भर्राकर, त्योरियाँ चढ़ाकर, चेहरा झुकाकर ग़म में डूब जाना – आह, इसे कहते हैं रोना, कि आँसू भी न खर्चे और पैसे भी वसूल !

योग दिवस पर ब्लॉकबस्टर टीकाकरण किए जाने से रवीश बहुत हताश हुए हैं । कुछ सवाल उन्होने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखे हैं , कुछ अलिखित छोड़ दिये हैं। कोरोना टीकाकरण की चमक-दमक में आप (देशवासी) इतने मशगूल हो गए कि आपने पल्स पोलियो अभियान की भव्यता को ही भुला दिया ! कैसे पूरे देश ने, यहाँ तक कि आम वोलेंटीयर्स ने भी, मन्नू जी के समय में (यह महत्त्व्पोर्न है) एकजुट होकर एक ही दिन में सत्रह करोड़ से अधिक बच्चों को पोलियो की दवाई पिला डाली थी । 1952 में Jonas Salk ने पोलियो वेक्सिन ईज़ाद की थी । 1961 में Albert Sabin ने ओरल पोलियो वेक्सिन विकसित की । पचास बरसों में ही (जिसमे से मात्र 41 में ही काँग्रेस का शासन रहा) भारत इस लायक हो गया कि उसने पोलियो से मुक्ति पा ली । और देखिये कोरोना के सामने हम कैसे पस्त हुए हैं !

अरे बीमारी हमारे महान देश में प्रविष्ट हुई उससे पहले टीका आ जाना चाहिए था । फिर आया भी तो पहले स्वीडन-इंग्लैंड से आया । नेहरू जी ने भारत में अनुसंधान की इतनी मजबूत नींव न डाली होती और इंदिराम्मा एवं मिस्टर क्लीन ने विज्ञान की महत्ता पर बल न दिया होता तो क्या हमारा टीका इंग्लैंड में बन पाता ? वो तो भला हो मम्मा और बाबा का जिनकी सतत प्रेरणा और दबाव के चलते दिन-रात हिन्दू-मुस्लिम करने के साथ-साथ हम मेडिकल रिसर्च भी करते रहे और अंततः स्वदेशी टीका भी बना ही लिया । पर इतने होहल्ले के बाद भी कितना शर्मनाक प्रदर्शन रहा है कि बीमारी के भारत में प्रवेश करने के 15 महीने बाद भी हम अभी तक कोरोना को जड़ से नहीं उखाड़ पाये हैं , जबकि पोलियो उन्मूलन हमने महज 50 साल में कर दिया था । जबकि बूंदें पिलाना सुई लगाने के मुक़ाबले कितना कठिन कार्य है !

कल किसी राज्य ने अधिक डोज़ लगाईं, किसी ने कम । दैनिक तौर पर कोई आगे घटेगा, कोई बढ़ेगा । रवीश की वामपंथी बुद्धि सब के लिए एक पैमाना मांगती है । थोड़ी सी भी चूक उसे बर्दाश्त नहीं है । वेक्सिन के पक्ष में प्रचार किए जाने से रवीश बहुत गुस्से में हैं । और क्यूँ न हो भला ? उसके चेनल और साथी पत्तलकारों ने, तथा उसकी पॉलिटिकल पार्टी ने शुरू से ही वेक्सिन को लेकर शंकाएँ उत्पन्न करने की कोसिश की है । इस प्रचार-प्रसार से वह अजेंडा हल्का पड़ जाता है । आखिर अल्पसंख्यकों की राय भी कुछ मायने रखती है कि नहीं ?

अगर हाँ, तो प्रधान जी ने अब तलक अल्पसंख्यकों के लिए मन की बात सरीखा कोई संदेश क्यूँ नहीं जारी किया ? क्या ये उनका फर्ज़ नहीं बनता कि सबको विश्वास में लेकर चलें । वेक्सिन लगवाने के एवज़ में गरीब-दलित-मुसलमान-महिलाओं-आदिवासियों-ओबीसी  के लिए किसी भत्ते की घोषणा भी नहीं की गयी है ।

वैसे तो रवीश का मूल उद्देश्य रुदाली बनना है , इसलिए वह मूलभूत रिसर्च और सामान्य समझ से कोसों डोर है । सवाल सिर्फ उत्तर परदेस और मध्य प्रदेश के उठाता है, महाराष्ट्र और दिल्ली को भारत का हिस्सा ही नहीं मानता । महाराष्ट्र में 18-29 आयु वर्ग वालों को सरकारी वेक्सिन लग ही नहीं रही तो उन्हें प्राइवेट में ही लगवाना पड़ेगा । सब कुछ होते हुए भी अभी तक कुल डोज़ का पाँच प्रतिशत भी पेड नहीं हुआ है । रवीश को वो यह  संख्या पचीस फीसदी दिखती है ।

जो डेटा रवीश पाणे को वास्तव में चाहिए वह है वेक्सिन लाभान्वितों का जाति और संप्रदाय के आधार पर ब्रेक-अप । अस्सी लाख में से कितने दलित, आदिवासी, मुसलमान थे ? कितनी महिलाएं थीं? सिर्फ दलित क्यूँ- जाटव, मूसहर, पासवान कितने थे, ये बतलाएँ? क्या उत्तर प्रदेश और बिहार में यादवों के प्रति भेदभाव है ?क्या  कुर्मियों को अधिक लाभ मिल रहा है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि अगड़े देश में सदियों से फैले ब्राह्मणवाद का फायदा उठाकर अधिकांश डोज़ भगोस रहे हों ? cowin पर पंजीकरण की अनिवार्यता समाप्त करने के उपरांत भी क्या अनपढ़ और गंवार वेक्सिन केन्द्रों तक पहुँच पा रहे हैं ? पाणे का बस चले तो हर केंद्र के बाहर माइक लेकर खड़ा हो जाए और ‘कौन जात हो भाई’ करता फिरे ।

बार बार यह कहकर कि न्यूज़ीलैंड जितने टीके हमने एक दिन में लगा लिए, सरकार समर्थक इस देश का अपमान क्यूँ कर रहे हैं ? क्या इसलिए क्यूंकी वहाँ की प्रधान एक महिला हैं ? या इसलिए कि मस्जिद पर हमला होने के पश्चात उन्होने बुर्का पहन कर मुसलमानों से हमदर्दी जताई थी? यदि ऐसा है तो विश्व क्रिकेट प्रतियोगिता के फाइनल में भारत को मुसीबत में डालकर किवीज ठीक ही कर रहे हैं ।

कुछ और भी प्रश हैं जिन्हें पूछने की रवीश की हिम्मत नहीं है – क्या राम मंदिर परिसर को टीका सेंटर नहीं बनाया जा सकता? क्या प्रधान आवास में टीके नहीं लगाए जा सकते ? क्या परमाणु केन्द्रों में टीकाकरण संभव नहीं है ? महज अस्सी लाख में छप्पन इंच फुला लेने का क्या मतलब है जब सत्रह करोड़ का रेकॉर्ड पहले से स्थापित है ?

मनहूसियत कई तरीखे की हो सकती है । मायूसी का नाम लेकिन सिर्फ रविश कुमार है । भगवा सरकार कुछ भी कर ले, इसका स्थायी भाव नहीं बदल सकता । रोने वाले को कौन भला आजतक रोक सका है ? वैसे रवीश कोई डेटा साइंटिस्ट नहीं है । न ही वह कोई स्टेटिस्टिशियन हैं । प्रोपेगेंडा के भौंपू का आंकड़ों से ऐसे भी क्या सरोकार ? वह बस तिरस्कार का भूखा एक फूफा है जिसे थोड़ी तगड़ी डोज़ चाहिए ।


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