फ़ाल्टन्यूज़ ने थूक के चाटा जब यूपी पुलिस ने मारा सच का चांटा

फ़ाल्टन्यूज़ नाम का एक गिरोह फर्जी खबरें बनाने, चलाने और सच के साथ छेदछाड़ कर नेटिज़न्स को बरगालने के काम में रिपब्लिक ऑफ ट्विटर पर अत्यधिक सक्रिय है । इस फ़ाल्टन्यूज़ को चलाने वाले दो वामपंथी दलाल – एक गंजा और किसी चिड़ियाघर से भागा एक भालू- किसी भी खबर में हेराफेरी कर उसे सत्यनिष्ठा के साथ चला देने में महारथ रखते हैं, खासकर अगर खबर में तनिक भी हिन्दू-मुस्लिम किया जा सके । अपने-अपने हाथ की सफाई है साहब- हर उस समाचार से जिसमे, मजहब के नाम पर या अपने किसी पर्सनल अजेंडा के चलते, किसी भी मज़हबी ने कोई कांड किया हो,  मजहब को और मजहबी की पहचान को गधे के सींग की तरह गायब कर देना, यह ज़बरदस्त फनकारी है (एक समुदाय , अज्ञात लोग, एक संप्रदाय …ये सब तो पढे ही होंगे आप)।  और हल्का-सा भी मौका लगने पर प्रभु श्रीराम को सर्वव्यापी, सर्वशक्तिशाली बताकर (जो कि वो हैं भी ) हर गुनाह के प्रेरणास्रोत या स्वयं एक गुनहगार के तौर पर पेश कर देना, ये तो कमाल की अय्यारी है । ये अव्वल दर्जे के सोशल मीडिया नटवरलाल हैं और रिपब्लिक ऑफ ट्विटर पर भारत का लोकतन्त्र इन्हीं की बदौलत ज़िंदा है ।

“जो हवा हैं, जिनको उकेरा-बनाया-देखा नहीं जा सकता , उनका फ़ेक्टचेक कैसे हो?”,  गंजा एक बार कमजोरी दिखाता हुआ बोला ।  “ और करना भी क्यूँ है? सुपारी देने वालों को ही नाराज़ कर दें क्या”?  दूसरी तरफ भालू हर समस्या को संप्रदाय के लेंस से देखता है और यथार्थ को जोड़, घटा, गुणा, विभाजित, स्क्वायर करके या रूट लेके, कैसे न कैसे मर्यादा पुरुषोत्तम से जोड़ ही देता है । वैसे हत्या, बलात्कार, भीड़ द्वारा हिंसा, जमीन पर कब्जा , चोरी इत्यादि मामलों में तो आरोपी और पीड़ित, दोनों ही पक्षों को, अपने अपने गॉड याद आ ही जाते हैं । “चूंकि श्रीराम इमाम-ए-हिन्द हैं, इसलिए कोई भी भारतीय कहीं भी, कैसे भी, किन्ही भी भगवान को याद करे, उसने राम को स्मरण किया, ऐसा कहना गलत नहीं होगा”, ऐसा भालू का कथन है । यानि की नाम चाहे लिया जाये जिस्सु का, शिव का, नानक का अथवा ‘कुछ नहीं’ का , या चाहे नाम लिया ही नहीं जाये, पर फिर भी जय श्रीराम का उद्घोष हुआ, ऐसा माना जा सकता है । कई बार तथाकथित पीड़ित बहुत पढ़ाने, समझाने ,रटाने और धमकाने के उपरांत भी कैमरा पर या पुलिस कम्प्लेंट में आरोप ठीक से नहीं लगा पाते । ऐसे में फ़ाल्टन्यूज़ के इन दल्लों की भूमिका अतिमहत्वपूर्ण हो जाती है – विडियो से औडियो कैसे गायब करना है, क्या कुछ मतलब मर्ज़ी से निकाल लेना है, कैसे पुलिस को सपोर्ट देना है (अगर गैर-हिन्दुत्व राज्य में हो) या दागी सिद्ध करना है, कहाँ-कितना हिन्दुत्व छिड़कना है, कैसे पीड़ित को पाक-साफ हाय-रे-बेचारा-कमजोर-डरा-हुआ-मजहबी दिखाना है, नेरेटिव कैसे सेट करना है और इकोसिस्टेम को कैसे सुचारु तौर पर चलाना है – इन सब कार्यों में गंजा और भालू सर्कस के मास्टर की भूमिका निभाते हैं । अब जब सत्यापन के तरीखे इतने क्रांतिकारी और दार्शनिक हैं , तो नतीजे तो हैरतंगेज़ आएंगे ही । 2019 के बाद से कमसकम सत्रह ऐसे मामलों में श्रीराम का फर्जी उल्लेख इस इकोसिस्टम द्वारा करवाया गया । और इन्हें कुछ साबित भी नहीं करना है, बस हवाई फायर करना है जिससे ‘जयश्रीराम’ को ओला-ऊबर के समान खतरनाक और नफरती बताया जा सके ।

फ़ाल्टन्यूज़ वाले अपनी अजेंडा लबोरेटरी में खबरों पर उचित प्रकार के वामपंथी रसायन और उदारवादी घोल डालकर उन्हें जिहाद-भरे बीकर में से पास करते हैं । सारी रसायनिक अभिक्रियाओं के बाद निकलने वाले फाइनल प्रोडक्ट को ‘सच’ कहकर एकोसिस्टम के पत्तलकारों की पत्तलों में परोस दिया जाता है । पत्तलकार , यानि की कौमी-जिहादी एकता के पर्चे बाटने वाले और हिन्दुत्व के खिलाफ दुष्प्रचार करने वाले सेलस्मैन, जिनकी रोज़ी-रोटी और पूछ-परख तीन-चार वेबपोर्टल्स’, ट्विटर हैंडलस, यूट्यूब चेनल्स और दो-एक मुख्यधारा के मीडिया चेनल्स के जरिये चलती है । बढ़िया इकोसिस्टम बना हुआ है – तू हमें (गीदड़ झुंड में वार करते हैं) नेरेटिव दे चलाने को, हम लाइक, रीट्वीट, रेलेवेन्स कबाडें ! पत्तलकारों का काम है इन तथाकथित सत्यापित खबरों को चखना, चाटना और ठूसना , और फिर यथाशक्ति सर्वत्र थूकना, उलटना और हंगना ।

ईकोसिस्टम में समन्वय स्थापित करने के माध्यम कई हो सकते हैं – स्पेसेज़, क्लबहाउस, व्हाट्सेप ग्रूप आदि , लेकिन अनुदार-वाम अजेंडा के प्रसार के लिए इन्हें सबसे उर्वर भूमि प्रदान कराता है राष्ट्रपति जैक डोरसी का ट्विटर गणराज्य, जिसकी धरा पर फलफूल सकते हैं केवल वोक और नाजी-वाम-वहाबी विचार । राष्ट्रपति जैक ने अपने गणराज्य में ऐसी गुप्त कार्यप्रणाली विकसित की है जिससे ऐसे सभी विचार जिनपर वाम-उदार-जिहादी तंत्र एकमत नहीं होता , उन्हें खरपतवार की तरह उखाड़कर फेंका जा सकता है । इन्हें ही ‘मेन्यूपूलेटेड मीडिया’ पोस्ट कहा जाता है ।  

कुलमिलाकर इस फ़ेक्टचेक फ़्रौडियाल का काम ताबीज़ बेचने जैसा है । ताबीज़ से याद आया वो लोनी (गाज़ियाबाद) वाला चिचा जिसने 7 जून वाली कम्प्लेंट में ‘जय श्री राम’ का कोई ज़िक्र नहीं किया था। लेकिन बाद में किसी इदरसी-फिदरसी के प्रभाव में आकर विडियो पर बड़ी-बड़ी डींगें हाँकी (बताई)। मामले को असली सांप्रदायिक रंग दिया (15 जून की एफ़आईआर में पुलिस द्वारा नामित) चिड़ियाघर के भालू, वेब पोर्टल द वायर, कुछ कोङ्ग्रेस्सी नेतागण, सबा नक़वी और राणा आयुब ने (ओह, सभी समुदाय विशेष से!) । इनने  ही धड़ाधड़ ट्वीट करके बार-बार राम का नाम लिया और खुद का मजहब हराम किया । लेकिन कहानी कुछ और ही निकल कर आई है । बुड्ढे से मारपीट करने वाले असामाजिक तत्त्व हिन्दू भी निकले और मजहाबी भी । न किसी ने राम का नाम लिया न लिवाया , न ही ऐसा कोई साक्ष्य ही मौजूद है । जिस विडियो के दम पर भालू और फ़ाल्टन्यूज़ ने ‘जयश्रीराम’ को बीच में घसीटा, उसमे तो औडियो तक नहीं थी । गाज़ियाबाद पुलिस ने यह स्पष्टीकरण भी कल ही जारी कर दिया था । इस तरह यह फेक न्यूज़ साबित हुई, ताबीज़ की तरह ही ।

लेकिन पुलिस का यह स्पष्टीकरण गरल आंधी को नहीं भाया । उसने फिर भी ट्वीट किया । ऐसा उसने राम से नफरत करने वालों के साथ खड़े दिखने हेतु किया । जब उसने फेक न्यूज़ फैलाई, तो उसके चंगु-मंगू-चेले-चपाटों-चूतियों ने भी अनुसरण किया ! कई और तवायफें भी बहुत ज़ोर नाचीं – जैसे राड़िया का पपलू सांघवी, भरी भास्कर (जो हिन्दू होने की कुंठा से भरी रहती है), बेगम बरफा खानम इत्यादि ।

खैर बाबा की पुलिस का डंडा भन्नाट चला । तुरतातुरत ट्वीट कर स्थिति स्पष्ट कर दी गयी, सांप्रदायिकता फैलाने के आरोप में एफ़आईआर दाखिल हो गयी जिसमे ट्विटर गणराज्य का भी नाम शामिल है । वेब पोर्टल क्विंट ने अपना एक घटिया कार्टून वापस ले लिया । भालू को सांप्रदायिकता फैलाता अपना ट्वीट डिलीट करना पड़ा । अधिकांश नफ़रतियों ने (सिवाय गरल आंधी और भरी भास्कर के) थूका हुआ चाटा ज़रूर है, पर इनके बिदेशी आका अभी अड़े हुए हैं । बीबीसी को भारत में वैचारिक स्वतन्त्रता की चिंता खाए जा रही है । भला भारत सरकार फेक न्यूज़ और नेरेटिव फैलाने के ट्विटर एवं अन्य के मूल अधिकारों पर कैसे लगाम कस सकती है ? इतना सब हो जाने पर भी ट्विटर ने उस ट्वीट को, जिसमे फर्जी विडियो शामिल था, न तो डिलीट किया न ही उसे ‘मेन्यूपूलेटेड मीडिया कंटेन्ट’ करार दिया, जिसे अंततः स्वयं फ़ाल्टन्यूज़ ने ही हटा दिया । फिर ये सब गीदड़ मिलकर लोकतन्त्र का रोना रोते हैं !


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