
कवितायें लिखते रहने से न कहीं क्रांति होगी
न ही दूर किसी भटके हुए की भ्रांतियाँ होंगी
कहाँ किसी ब्रह्मज्ञानी के विचार कभी बदलेंगे
न ही पापियों, दुष्टों के अत्याचार कहीं घटेंगे
हाँ , दूर अवश्य होगी मेरी बेरोजगारी हो चाहे
निकासी ज़रूरी संभव है उदर में भरी गैस की
थोड़ी कम हो जाए सामाजिक-राजनैतिक घृणा
पूरी हो जाए मेरे अधूरे एकतरफा प्रेम की साध
क्या पता पंक्तियाँ लिखने में ही कहीं छिपा हो
मेरी असाध्य कुंठा का कोई कारगर इलाज़
कवितायें लिखने से किसी की भूख शांत नहीं होगी
जो दुनिया पहले थी वही लिखने के उपरांत होगी
न उस तक कभी पहुँचेंगी न ही वह इन्हें पढ़ेगी
इन पुर्जों-पन्नों के जरिये बात कभी न आगे बढ़ेगी
हाँ संभव है लिखते रहने से हल्का हो जाये कुछ बोझ
हर तरफ सालता रहता है जो अन्याय रोज़
हो सकता है समझ सकूँ मैं भी अपनी सोच
लिखा हुआ तो पढ़ लूँ खुद का वक्त न डाले पोंछ
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