लौहपथगामिनी में दिव्य निपटान

on

(अगर आपको गंदगी , पाखाने और सच से घिन आती है तो कृपया आगे न पढ़ें , क्यूंकी यह ब्लॉग इन्हीं सब के बारे में है, और इसे पढ़ना भयावह हो सकता है )

वास्तविक टाइटल – “ट्रेन में टट्टी”

बत्तीस घंटे का लंबा सफर है देवास से कोलकाता का । इतनी देर में किसी को भी एक बार तो हगना ही पड़ेगा, चाहे कितना भी रोक ले । तो क्या हुआ अगर डिब्बा थर्ड एसी का है, है तो उसी देश की एक ट्रेन में जहां सफाई का महत्त्व हर दो हफ्ते बाद प्रधान सेवक को अपने मन की बात में साझा करना पड़ता है । वैसे आई डोंट लाइक शिटिंग इन ट्रैंस । पीरियड ।

गंदगी तो अलग, उस से तो थोड़ा एडजस्ट कर भी लें ,पर हग्गाभिलाषियों की बहुत लंबी कतार भी रहती है । न जाने मेरे देशवासी दिव्य निपटान हेतु इतना लालायित क्यूँ रहते हैं?  कहने को गरीब,भूखे, नंगों का देश है ,पर अगर निपटान का ओलंपिक हो जाए तो बहुत से तमगे लेकर आयेंगे हमारे हग्गाथोन एथ्लीट । होगा कुछ मौसम या मसालों का चक्कर , जैसे केन्या-इथियोपिया के एथ्लीट लंबी दूरी की दौड़ में चैम्पियन निकलते हैं ।

खैर कतार में लग जाईए और पाईये दो पाखाने (एक देसी, एक वेस्टर्न) आमने-सामने एक डब्बे में, और दो ठीक ऐसे ही बगल वाले डब्बे में। रेल्वे ने सुविधाएं तो प्रचुर बनाई हैं, पर देश की आबादी कमबख्त इतनी अधिक है और ऊपर से बढ़ती हुई भी, कि सारी शौच सुविधाएं सदैव ओक्यूपाईड ही पाई जाती हैं, वह भी लंबी वेटिंग-लिस्ट के साथ । ऐसा कई यात्राओं के दौरान हुआ है जब किसी डब्बे को खोला तो लंबी लाइन या पखानों से भरा पाकर मैं चहलकदमी करता हुआ दूसरे डब्बे की पंक्ति में जा कर लग गया ; मगर हाय रे मेरे देश के दानदाताओं , वहाँ भी चारों सुविधाओं को भरा (निपटने वालों और पाखानों से) ही पाया ।

तब यह युक्ति भिड़ाने लगा कि रेल यात्रा के दौरान  दिव्य निपटान के लिए पौ फटने से पहले ही उठ  कर ,यानि सबेरे साढ़े तीन –चार बजे ही, निवृत्त हो लिया जाए । कुछ वर्ष तक यह युक्ति काम भी की ,पर लालू यादव ने ट्रेनों के किराए बढ़ाए नहीं और इस से एसी यात्रा हर चमन चूतिये के लिए अफोर्डएबल हो गयी । पशु वर्ग का आक्रमण रेल इनफ्रास्ट्रक्चर झेल न पाया, और सबसे पहले इसके पाखाने भरे और सड़े ,और धीरे-धीरे कम से कम थर्ड एसी तो स्लीपर और जनरल क्लास जैसा ही कोञ्जेस्टेड और भद्दा हो कर परमानेंट सड़ांध मारने लगा  ।

खैर रात को बारह बजे देवास से हल्का पेट लेकर ही चढ़ा था ,इसलिए अगले दिन सुबह चार बजे उठने का प्रश्न ही नहीं था। दस बजे करीब नींद खुली तो मन मे कोई उमंग नहीं थी क्यूंकी जानते थे की ये तो निपटान का प्राइम टाइम है, इस समय कहाँ नंबर लगेगा? इस समय तो भारतीय हो या पाश्चात्य, सभी पाकिस्तान न सिर्फ बुक होंगे ,बल्कि मलबे से लादालद भी हो चुके होंगे । थोड़ी आत्म-ग्लानि भी हुई कि काश थोड़ा सुबह उठ गए होते तो……। फिर खुद को दिलासा दिया कि चलो यार , कोई खास प्रैशर भी तो नहीं बन रहा । कोई ज़रूरी तो नहीं की उठने के साथ ही निवृत हुआ ही जाए । इस तरह मन समझते हुए मैं डब्बे में टहल-टहलाकर अपनी जगह पर आकर बैठ गया । माँ ने कुछ पूरियाँ,आचार और नमकीन आगे बढ़ाए तो कुछ ना-नुकुर के बाद उसे खा भी लिया । एक शक्कर भरी चाय के साथ इस ब्रेकफ़ास्ट का आनंद लिया ,पर दिमाग में यह डाउट हमेशा बना रहा की खा तो रहे हैं पर कहीं ……

खैर हमने खूब खाया भी और उसे पचाया भी । दो घंटे बाद, डेढ़ के आसपास जब ट्रेन कटनी मे रुकी तो लॉजिक लगाया की शायद यहाँ इंजन बदलने के साथ-साथ ट्रेन की सफाई भी होगी । एनिवे चान्स लेने मे क्या बुराई है। दीर्घ नहीं तो लघु शंका का निवारण करके ही लौट लेंगे , नन द वाइसर फॉर द अटेम्प्ट । तो ये लो बबुआ , हम खींच कर खोले पहला ही दरवज्जा, और ससुरा वो झटके से खुला । सार्वजनिक जगहों पर भारतीय शैली का एपरेटस हमको थोड़ा बैटर लगता  है, कारण कि आपकी और अंजान सहयात्री की गाँडें एक ही टॉइलेट सीट पर नहीं टिकती । शंकालू नज़रें ढूंढ रही थीं संडास के पकौड़े और रिसता हुए पानी, मगर अहोभाग्य! सब नदारद थे । मैदान साफ – सपाट- सफाचट था । ये दुपहरी मेरी थी ,ये डिब्बा ,उसका साफ शौच मेरा था, आज ये जमीन ये आसमान ये जहां – सब मेरा था  ।

प्रायः स्मरणीय प्रधान सेवक जी की तस्वीर एकदम से मेरे दिमाग में कौंधी  । वाह रे स्वच्छ भारत का संकल्प

करने वाले,वाह रे अपने वादों पर खरा उतरने वाले महामना ,तेरी जय हो । मैंने अपनी पोज़िशन सम्हाली और अपना उद्धार करता चला गया । भारत का रेल मंत्री कौन है यह सोचने की कोशिश की ,लेकिन सवाल गौण-सा लगा । हू ब्लडी केयर्स ?

तभी ध्यान आया कि ट्रेन तो रुकी हुई है और शायद चलती ट्रेन में शौच नहीं करने की हिदायत टीवी इश्तेहारों में बरसों से दी जा रही है । पर मेरा काफिला अब न रुक सकता था , न ही पलट सकता था । जिस हमले का आदेश मैं दे चुका था ,उसे रोकने का कोई मंत्र मेरे पास न था । मैं परिश्रम करता गया ,कारवां बनता गया । समापन समारोह के लिए जल या टॉइलेट पेपर की ज़रूरत महसूस हुई तो यह मदहोशी टूटी । लोहे की चैन के जरिये नल से बंधा स्टील का मग्गा वहाँ तक नहीं जा सकता था जहां मैं उसे ले जाना चाहता था । जून की दुपहरी में पानी उबल भी रहा था । टॉइलेट पेपर अवेलेबल होगा इसकी उम्मीद तो मैंने नहीं की थी । अगर मिल जाता तो रेल्वे को बदखर्ची के लिए मन ही मन कोस भी देता । किसी तरह से ,और यह मैं साझा नहीं करूंगा कैसे ,अपनी शंकाओं का निवारण करके और स्वयंस्वच्छ होकर मैं बाहर निकला ।

बहुत कुछ गवा दिया था मैंने, जिसे सही समय पर खोकर मैं एकदम हल्का महसूस कर रहा था । लेकिन उस बंधे हुए मग्गे ने मुझे मेरी भारतीयता का एहसास भी करवा दिया था । क्या ये तंत्र हमे अपनी गांड धोने के लिए एक आज़ाद लोहे का पुराना मग्गा भी नहीं दे सकता ? क्या हम लोग हैं नहीं इतने गए-गुजरे और निकृष्ट कि गलती आखिर सिस्टम की भी नहीं है ! आप, मैं और रेल्वे सभी जानते हैं  कि क्या होगा चेन से नहीं बंधे मग्गे ,हाथ धोने के साबुन ,और यहाँ तक कि अभी-अभी साफ हुए उस शौचालय का ! खैर अब क्या किया जा सकता है ? जो करना था वो आलरेडी कर चुके थे । कुछ और खाने-पीने के मंसूबे बांधते हुए मैं अपनी सीट पर आकर बैठ गया ।

माँ ने पूछा – कुछ खाओगे क्या ?………


#भारतीयरेल #ट्रेनमेंटट्टी

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s